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________________ कर्तृ- कर्माधिकार अर्थ- जब इस जीव के द्वारा आत्मा और आस्रवों का विशेष अन्तर जान लिया जाता है तब इसके बन्ध नहीं होता । विशेषार्थ - इस जगत् में जो पदार्थ हैं वे सब अपने-अपने स्वभाव में तल्लीन हैं, क्योंकि जो अपना भवन है अर्थात् अपनी परिणति है वही तो अपना निज भाव है। इस कारण ज्ञान का जो होना है वही तो निश्चय से आत्मा का स्वभाव है। अर्थात् जो ज्ञान है वही आत्मा है, क्योंकि जैसे उष्ण गुण से भिन्न अग्नि नहीं, वैसे ज्ञानगुण से भिन्न आत्मा भी नहीं है। इससे जो ज्ञान का होना है निश्चय से वही आत्मा है, और क्रोधादिकों का जो होना है वह क्रोधादिक हैं । जो ज्ञान का होना है वह क्रोधादिक का होना नहीं है, क्योंकि ज्ञान के होने में ज्ञान ही होता हुआ प्रत्यय में आता है, क्रोधादिक का होना प्रत्यय में नहीं आता, और जो क्रोधादिक का होना है वह ज्ञान का होना नहीं है, क्योंकि क्रोधादिक के होने में क्रोधादिक ही होते हुए प्रत्यय में आते हैं, - ज्ञान का होना प्रत्यय में नहीं आता । इस तरह आत्मा और क्रोधादिकों के निश्चय से एकवस्तुपन नहीं है। इस प्रकार आत्मा और आस्रव का विशेष (भेदज्ञान) होने पर जब यह आत्मा उन दोनों के भेद को जान लेता है तब इसकी अनादिकालीन अज्ञानजन्य कर्तृ-कर्म की प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है और उसके निवृत्त होने पर अज्ञान-निमित्तक पुद्गलद्रव्य कर्म का सम्बन्ध भी निवृत्त हो जाता है । जब ऐसी वस्तुस्थिति हो जाती है तब ज्ञानमात्र से ही बन्ध का निरोध सिद्ध होता ।। ७१ ।। आगे प्रश्न होता है कि ज्ञानमात्र से बन्ध का निरोध किस तरह होता है ? इसका उत्तर देते हैं १०९ णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो । । ७२ ।। अर्थ- आस्रवों का अशुचिपन और विपरीतपन तथा ये दुःख के कारण हैं ऐसा जानकर जीव उनसे निवृत्त होता है । विशेषार्थ - जैसे जल में शेवाल हो जाने से जल मलिन हो जाता। ऐसे ही ये आस्रव भाव आत्मा को कलुषित बना देते हैं, अतः अशुचिरूप हैं। परन्तु भगवान् आत्मा नित्य ही अतिनिर्मल चिन्मात्रपन से उपलब्ध होने के कारण अत्यन्त पवित्र है। ये आस्रव जड़ हैं तथा पर के द्वारा जाने जाते हैं, इसलिये आत्मा से अन्य स्वभाव हैं और भगवान् आत्मा नित्य ही विज्ञानघनस्वभाव है। अतएव स्वयं चेतक होने से अन्य स्वभावरूप नहीं होता किन्तु निरन्तर ज्ञानस्वभावात्मक है। ये आस्रव आकुलता के उत्पादक हैं, अतः दुःख के कारण हैं और भगवान् आत्मा नित्य ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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