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________________ २. कर्तृ-कर्माधिकार अनन्तर जीव और अजीव ही कर्ता और कर्म का स्वांग रखकर रङ्गभूमि में प्रवेश करते हैं। उनके यथार्थ स्वरूप को जाननेवाली ज्ञान-ज्योति है। अत: प्रारम्भ में श्री अमृतचन्द्र स्वामी उसी ज्ञान-ज्योति की महिमा का गान करते हैं मन्दाक्रान्ताछन्द एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी' इत्यज्ञानां शमयदभित: कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वनिरुपधि पृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम् ।।४६।। अर्थ- इस संसार में मैं जो एक चेतनात्मक आत्मा हूँ सो कर्ता हूँ और ये क्रोधादिक मेरे कर्म हैं' अज्ञानी जीवों की इस कर्तृ-कर्मप्रवृत्ति का सब ओर से शमन करती हुई ज्ञान-ज्योति प्रकट होती है। ज्ञानज्योति परम उदात्त है, अत्यन्त धीर है, निरुपधि है, अर्थात् परकृत उपाधि से रहित है, पृथक्-पृथक् द्रव्यों को अवभासित करनेवाली है और समस्त विश्व का साक्षात् करनेवाली है।।४६।। आगे कहते हैं कि आत्मा और आस्रव इन दोनों के अन्सर को नहीं समझना ही बन्ध का कारण है जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोणं पि । अण्णाणी तावदु सो कोधादिसु वट्टदे जीवो।।६९।। कोधादिसु वटुंतस्स कम्मस्स संचओ होदि । जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरसीहिं ।।७।। अर्थ- जब तक जीव, आत्मा और आस्रव इन दोनों के विशेष अन्तर को नहीं जानता है, तब तक अज्ञानी हुआ वह क्रोधादिक में प्रवृत्ति करता है और क्रोधादिक में प्रवृत्ति करनेवाले उस जीव के कर्म का संचय होता है। इस प्रकार जीव के कर्मों का बन्ध सर्वज्ञदेव ने निश्चय से कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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