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जीवाजीवाधिकार
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के विकारों से विरुद्ध, शुद्ध, चैतन्यधातुमय मूर्ति से संयुक्त है अर्थात् वीतरागविज्ञान इसका स्वरूप है।
भावार्थ- अनादिकाल से इस जीव का पुद्गल के साथ परस्परावगाह रूप सम्बन्ध हो रहा है, इसलिये अज्ञानी जीवों को इसमें एकत्व का भ्रम उत्पन्न हो रहा है। उसी भ्रम को दूर करने के लिये आचार्य ने दोनों के भिन्न-भिन्न लक्षण बताते हए कहा है कि जीव तो रागादिक पुद्गल के विकारों से रहित शुद्ध चैतन्यधातु का पिण्ड है और पुद्गल वर्णादिमान् है। इस अविवेक अर्थात् अभेदज्ञानमूलक नाट्य में सारी भूमिका पुद्गल की ही है। वही राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म और नोकर्म
आदि का रूप रखकर अपने नाना स्वांग दिखला रहा है, जीव तो सब अवस्थाओं में एक चैतन्य का ही पिण्ड रहता है।।४४।।
इस तरह भेदज्ञान की प्रवृत्ति से ही ज्ञायक आत्मदेव प्रकट होता है, यह कहते हैं
मन्दाक्रान्ताछन्द इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा
जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः। विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे।।४५।। अर्थ- इस प्रकार ज्ञानरूप करोंत (आरा) की क्रिया से विदारण का अभिनय कर अर्थात् पृथक्-पृथक् होकर जबतक जीव और अजीव स्पष्ट रूप से विघटन को प्राप्त नहीं होते तब तक अतिशयरूप से विकसित तथा प्रकट चैतन्यमात्र की शक्ति से समस्त विश्व को व्याप्त कर यह ज्ञाताद्रव्य आत्मा अपने आप बड़े चाव से अत्यधिक प्रकाशमान होने लगता है।
भावार्थ- इस संसार में अनादिकाल से जीव की पुद्गल के साथ संयोगी दशा चली आ रही है। जब तक भेदज्ञान नहीं होता तब तक यह जीव शरीरादि दृश्यमान पदार्थों को आत्मा मानता रहता है, 'ज्ञायक आत्मद्रव्य इन शरीरादिक से भिन्न द्रव्य है' ऐसी अनुभूति इस जीव को नहीं होती, परन्तु जब भेदज्ञानरूप करोंत इसके हाथ लगती है तब यह उसके चलाने के अभ्यास से जीव और पुद्गलरूप अजीव को अलग-अलग समझने लगता है। अब उसकी प्रतीति में आता है कि अहो, चैतन्यस्वभाव को लिये हुए ज्ञायक आत्मद्रव्य तो इन शरीरादिक से भिन्न पदार्थ है। अभी तो उसने जीव और अजीव को केवल श्रद्धा के द्वारा अलग-अलग समझा
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