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________________ १०४ इत्यादि अनेक दोषों से रहित जीव का वास्तविक लक्षण चैतन्य है । वह जीव की सब अवस्थाओं में रहता है । अतः वही अव्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभव दोषों से रहित है ।।४२।। समयसार इस तरह ज्ञानी के जीव और अजीव का भिन्न-भिन्न ज्ञान होने पर भी अज्ञानी का मोह पुनः अतिशय नृत्य करता है, इसपर आचार्य आश्चर्य प्रकट करते हुए कलशा कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम् । अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोऽयं मोहस्तु तत्कथमहो वत नानटीति ।। ४३ ।। अर्थ - इस प्रकार पूर्वकथित लक्षण से अजीव जीव से भिन्न है ऐसा ज्ञानी जन स्वयं उल्लसित होनेवाले अजीवतत्त्व का अनुभव करते हैं। परन्तु अज्ञानी जीव का निर्मर्यादितरूप से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह मोह क्यों बार-बार अतिशयरूप नृत्य कर रहा है, यह आश्चर्य और खेद की बात है । भावार्थ- जीव और अजीव दोनों ही अपने-अपने लक्षणों से भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा ज्ञानी जीव स्वयं अनुभव करते हैं। परन्तु अज्ञानी जीव का मोह अर्थात् मिथ्यात्व इतना अधिक विस्तार को प्राप्त हुआ है कि वह उसे स्पष्ट सिद्ध जीव और अजीव का भेदज्ञान नहीं होने देता। इसीलिये वह शरीरादि अजीव पदार्थों में जीवबुद्धि कर चतुर्गति में भ्रमण करता है ।। ४३ ।। आचार्य कहते हैं कि अज्ञानी का वह मोह भले ही नृत्य करो, को ऐसा भेदज्ञान होता ही है Jain Education International वसन्ततिलकाछन्द अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः । रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।४४।। अर्थ - यह जो अनादिकाल से बहुत बड़ा अविवेक का नाट्य हो रहा है उसमें वर्णादिमान् पुद्गल ही नृत्य करता है, अन्य नहीं, क्योंकि यह जीव, रागादिक पुद्गल परन्तु ज्ञानी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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