________________
प्राक्कथन
तथा सप्तम प्रतिमाधारी विद्वान् ब्रह्मचारी होने के नाते भी हम सब उन्हें अपना गुरु ही मानते थे। वर्णीजी का मुझपर अत्यधिक स्नेह इस कारण भी था कि उन्होंने सप्तम प्रतिमा की दीक्षा मेरे पूज्य पिता ब्रह्मचारी गोकुलप्रसादजी के पास ली थी। ऐसे महान् सन्त का स्नेहभाजन होना मेरा परम सौभाग्य था।
पूज्य वर्णीजी के मुखारविन्द से मुझे समयसार के प्रवचन सुनने का अवसर प्राय: सदा मिलता था। मैं उन्हें प्राय: समयसार का ही स्वाध्याय करते पाता था। ग्रन्थराज उनके लिए 'सुधानिधि' थे। वे कभी-कभी स्वप्न में भी समयसार का स्वाध्याय किया करते थे और उनके समीप रहनेवाले उनके मुख से सोते समय पंक्तियों का पाठ सुनते थे।
इसी युग में ब्र० शीतलप्रसादजी तथा कारंजा के भट्टारक श्रीवीरसेनस्वामी भी समयसार के अध्येता हुए हैं। पर इस अमृत का स्वाद वे शायद अपने तक ही सीमित रख सके। ब्र० शीतलप्रसादजी ने इस विषय पर कुछ पुस्तकें भी लिखी हैं।
श्री कानजीस्वामी तो समयसार से इतने प्रभावित हैं कि वे अहर्निश प्रायः इसी का स्वाध्याय एवं प्रवचन करते हैं। उन्होंने समयसार के अध्ययन के आधार पर स्वयं को तथा अपने हजारों शिष्यों को अध्यात्म की ओर मोड़ दिया है।
पूज्य वर्णी जी अध्यात्मरस के रसिक थे। दूसरों को भी उसका रसास्वाद कराने में उनकी माधुरी वाणी समर्थ थी। जब पूज्यश्री का प्रवचन होता था, तो ऐसा लगता था कि इनकी वाणी कैसे पकड़कर रख ली जाय, जो कालान्तर में भी हमारे हृदय में सुधा-सिंचन करती रहे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक बार वर्णीजी से प्रार्थना की कि वे समयसार पर कुछ लिखें।
वर्णीजी ने अनेक श्रोताओं के आग्रहवश चुपचाप लिखना भी प्रारम्भ कर दिया था। उनके स्वर्ग प्रयाण के बाद शोध हुई तो उनके लिखे समयसार-प्रवचन की पाण्डुलिपि पायी गयी। वर्णीजी की भाषा बुन्देलखण्डी मिश्रित थी, अत: उनका समयसार-प्रवचन भी स्वभावत: वैसी ही भाषा में लिखा गया। सर्वसाधारण की, जो खड़ी हिन्दी से परिचित हैं, कठिनाई भी हल हो सके, इस अभिप्राय से यह आवश्यक समझा कि इसे खड़ी भाषा में अवतरित किया जाय। यह कार्य श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर ने करना स्वीकार किया और उसे बहुत सुन्दर स्वरूप दिया, जो वर्णी-ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट होकर आज आपके सामने आ रहा है।
१० सिम्बर १९६९,
कटनी
जगन्मोहनलाल शास्त्री
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org