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समयसार
इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम् ।।३५।। ___ अर्थ- हे भव्य जीवों! चैतन्यशक्ति से रहित समस्त अन्यभावों का शीघ्र ही परित्याग कर तथा चैतन्यशक्तिरूप निजस्वभाव में अच्छी तरह अवगाहन कर समस्त विश्व के ऊपर विचरण करते हुए अर्थात् सबसे पृथक् अनुभव में आते हुए परमात्मस्वरूप अविनाशी आत्मा का अपनी आत्मा में ही अनुभव करो।
भावार्थ- हे भव्यलोको! केवल एक अपने निजात्मा का निज आत्मा में अनुभव करो। उसके लिये चिच्छक्ति से भिन्न जो भाव हैं—चाहे वे द्रव्यरूप हों, चाहे गुणरूप हों अथवा चाहे कर्मनिमित्त से जायमान औदयिक आदि विभावरूप हों- उन सब का शीघ्र ही त्याग करना आवश्यक है तथा चिच्छक्तिमात्र अर्थात् रागादिक की पुष्टि से रहित मात्र ज्ञायकशक्तिरूप निजस्वरूप में अच्छी तरह अवगाहन करना—उसी का मनन करना अपेक्षित है। वह निज आत्मा स्वपरात्रभासक होने से समस्त लोक के ऊपर विचरण करता है अर्थात् उसकी सत्ता सबसे पृथक् अनुभूति में आती है, वह परमात्मस्वरूप है अर्थात् पर्यायार्थिकनय से यद्यपि एकेन्द्रियादि पर्यायों में परिभ्रमण करता हुआ रागी, द्वेषी और अज्ञानी हो रहा है तथापि द्रव्यदृष्टि से वह परमात्मा के समान सर्वज्ञ-वीतराग है तथा अनन्त अविनाशी है।।३५।।
अनुष्टुप्छन्द चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम्।
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी।।३६।। अर्थ- चैतन्यशक्ति से व्याप्त है सर्वस्वसार जिसका ऐसा जीव तो इतने मात्र है और इसके सिवाय जितने भी भाव हैं वे सभी पुद्गलमय हैं।
भावार्थ- आत्मा का सर्वस्वसार चेतनाशक्ति से व्याप्त है। इससे शून्य जो भी भाव हैं वे सब पुद्गलजन्य होने से पुद्गल के ही हैं उनमें आत्मा का अस्तित्व खोजना शशशृङ्ग के तुल्य है। यहाँ ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म तथा शरीर तो स्पष्ट ही पुद्गलद्रव्य के परिणमन होने से पौद्गलिक हैं परन्तु रागादिक भावकर्म को भी पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण पौद्गलिक कहा है। यह निमित्त की मुख्यता से कथन है। उपादान की मुख्यता से वे आत्मा के ही विकारी भाव हैं।।३६।।
आगे इसी का विशेष विवरण आचार्य छह गाथाओं में कहते हैंजीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो। ण वि रूवं ण सरीरंण वि संठाणं ण संहणणं ।।५०।।
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