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समयसार
विशेषार्थ- संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र - कालभावचतुष्टय कर अपने-अपने अस्तित्व में लीन हैं। अन्य पदार्थों के साथ परस्परावगाह लक्षण सम्बन्ध होने पर भी एक पदार्थ का अन्य पदार्थ के साथ तादात्म्य नहीं होता। निश्चय से यह आत्मा अनादिकाल से मोह के द्वारा अत्यन्त अप्रतिबुद्ध हो रहा है और इसी अप्रतिबुद्धता के कारण अपने और परके भेद से अनभिज्ञ है। इसकी ऐसी दशा देख संसार से विरक्त परमदयालु श्रीगुरु ने इसे निरन्तर समझाया, उससे किसी तरह प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। तब जैसे कोई मनुष्य सुवर्ण को अपने हाथ में होते हुए भी अन्यत्र अन्वेषण करता है और न मिलने से दुखी होता है । उसकी यह अवस्था देख किसी मनुष्य ने कहा- क्या खोजते हो? वह कहता है— सुवर्ण खो गया है। तब उसने कहा – तुम्हारे हाथ में ही तो है। यह सुन वह एकदम
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आनन्द को प्राप्त हो गया। ऐसे ही आत्मा है तो आत्मा में ही, परन्तु अज्ञानी उसे शरीरादी परपदार्थों में खोजकर दुःख का पात्र होता है। अब श्रीगुरु के उपदेश से परमेश्वर आत्मा को जानकर तथा श्रद्धाकर और उसी में चर्याकर समीचीन आत्मा में ही आत्मा का रमण करता हुआ एकदम आनन्दपुञ्ज का आस्वाद लेकर ऐसा तृप्त हो जाता है कि अनन्त संसार की यातनाएँ एकदम विलीन हो जाती हैं। वही मैं एक आत्मा हूँ। यद्यपि आत्मा में क्रम और अक्रम से प्रवर्तमान व्यावहारिक भावों के द्वारा नानापन का व्यवहार होता है तथापि चैतन्यमात्र आकार के द्वारा मुझमें कोई भेद नहीं है, अतएव मैं एक हूँ । नारकादिक जीव के विशेष तथा अजीवरूप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये जो व्यवहार से नव तत्त्व हैं उनसे मैं टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव के द्वारा अत्यन्त भिन्न होने से शुद्ध हूँ। मैं चेतनामात्र हूँ और सामान्यविशेषोपयोग अर्थात् ज्ञान- दर्शनोपयोग के साथ जो तन्मयता है उसका कभी भी अतिक्रमण नहीं कर सकता, अतः ज्ञान-दर्शनमय हूँ। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण इनका संवेदन करने वाला हूँ। अर्थात् मेरे ज्ञान में ये प्रतिभासमान होते हैं, मैं इनका जानने वाला हूँ परन्तु इनरूप नहीं परिणमता। अतः परमार्थ से सर्वदा अरूपी हूँ । इस प्रकार इनसे अपने स्वरूप को भिन्न जानता हुआ इन्हें जानता भर हूँ। यद्यपि बाह्य पदार्थ अपनी विचित्र स्वरूप- सम्पदा के द्वारा मेरे ज्ञान में स्फुरित होते हैं — झलकते हैं तो भी परमाणुमात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है जो भावकपन से या ज्ञेयपन से मुझमें फिर मोह उत्पन्न कर सके। जब आत्मा में भावक-भाव्यभाव और ज्ञेय - ज्ञायकभाव मोह के उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते हैं तब यह स्वरस से ही, फिर उत्पन्न न हो सके, इस तरह मोह का समूल उन्मूलन करता है और उस समय इसके महान, ज्ञान का उद्योत अर्थात् संपूर्ण ज्ञान का प्रकाश स्वयमेव प्रकट हो जाता है।
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