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जीवाजीवाधिकार
नाना हैं । उनमें आकाश, काल, धर्म और अधर्म ये चार द्रव्य सदा एक (सदृशपरिणमन) रूप ही रहते हैं, किसी भी काल में उनका विसदृश परिणमन नहीं होता, क्योंकि उन द्रव्यों में विभावशक्ति का अभाव है। शेष जीव और पुद्गल द्रव्य परस्पर निमित्त पाकर नाना प्रकार के परिणमन के कर्ता होते हैं क्योंकि उनमें विदृश परिणमन कराने वाली विभावशक्ति विद्यमान है। यही कारण है कि जीव और पुद्गल में यह आस्रवादिक परिणमन होता है।
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अब यहाँ विचार करने की परमावश्यकता है। यह जो ( दृश्यमान) परिणमन है वह सम्यग्दृष्टि के भी होता है और मिथ्यादृष्टि के भी होता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि मात्र पर्याय में अहंता - अहंभाव धारण कर संसार का पात्र होता है । सम्यग्दृष्टि भी यद्यपि पर्याय को अपनी जानता है परन्तु वह यह मानता है कि यह जो पर्याय निष्पन्न हुई है वह विजातीय द्रव्य के सम्बन्ध से हुई है अतएव स्वभावरूप और स्थिर नहीं है, कारण के अभाव में मिट जावेगी, आकुलता की उत्पादक है तथा आस्रवादि की जनक है। अतः वर्तमान में उसे अपनी मान कर भी उसे पृथक् करने की चेष्टा करता है। यदि सर्वथा अपनी न समझे तो उसे पृथक् करने का जो प्रयास है वह सब व्यर्थ हो जावे और इसी तरह रागादि विभाव या आस्रवादि सर्वथा आत्मा के नहीं हैं ऐसा समझे तो रागानुत्पत्ति को संवर और बन्धफलानुभव को निर्जरा कहा है वह सब व्यर्थ हो जावे तथा मोक्ष का जो लक्षण 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' कहा गया है वह सब भी असंगत हो जावे । अतः आत्मा का जो एकपना कहा गया है वह शुद्धनय की दृष्टि में है, अशुद्धनय — पर्यायदृष्टि में नहीं है। परन्तु जो जीव सर्वथा पर्याय में ही अपना अस्तित्व मान रहे हैं और द्रव्य से पराङ्मुख हैं उन्हें यथार्थ वस्तु अवगत कराने के लिये तथा पर्याय के कारण जो नानात्व बुद्धि हो रही है उसके निवारण के अर्थ आचार्यप्रभु का कहना है कि एकपन कर जाना हुआ जो शुद्धात्मा का विषय है वह नानापर्यायों में रहता हुआ भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ता । जैसे सुवर्णद्रव्य किट्टकालिकादि परद्रव्य के सम्बन्ध से अनेक अवस्थाओं को धारण करता हुआ भी द्रव्यदृष्टि से स्वकीय सुवर्णता को नहीं त्यागता, इस तरह द्रव्यदृष्टि से कोई हानि नहीं, परन्तु पर्यायदृष्टि से हानि अवश्य हुई। उस सुवर्ण की यदि बसन्तमालिनी बनाना चाहो तो वैद्य तत्काल कहेगा कि यह अशुद्ध सुवर्ण है, इसका उपयोग दवाई में नहीं होता; क्योंकि इसके वर्णादिगुण विकृत हैं, गुणकारी नहीं हैं । इसी तरह जो आत्मा परपदार्थों के सम्बन्ध से मोही हो रहा है उसके चारित्रादि गुण भी विकारी हैं, अतः यह आत्मा अनन्त सुख का पात्र नहीं हो सकता । अनन्त सुख आत्मा का एक अनुपम विकासरूप गुण है, इसी के लिये महापुरुषों ने प्रयास किया और इसके भोक्ता हुये तथा अब
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