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________________ ३० समयसार नमक-मिर्च- खटाई इस तरह अनेक स्वाद हो जाते हैं यदि तीनों को पृथक्-पृथक् रखा जावे तो मिश्र में जो स्वाद आता है वह केवल में नहीं आ सकता। इसी तरह जीव में जो आस्रवादि होते हैं वे पुगलसम्बन्ध से ही हैं, केवल जीव में तो एक ज्ञायकभाव ही है और अन्त में पुद्गल का सम्बन्ध विच्छेद होने पर वही रह जाता है। अतएव केवल जीव के अनुभव में ये नव तत्त्व अभूतार्थ हैं। इसीलिये इन नव तत्त्वों में भूतार्थनय से विचार किया जावे तो केवल एक जीव ही भूतार्थ है तथा अन्तर्दृष्टि से ज्ञायकभाव जीव है । जीव के विकार का कारण अजीव है, जब ऐसी व्यवस्था है तब जीव के विकार पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षरूप हैं और ये अजीव के विकार के कारण हैं। इसी तरह अजीवरूप भी पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष हैं और ये जीव के विकार के कारण हैं। ये जो नौ तत्त्व हैं इनका यदि जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर स्वपरनिमित्तक एकद्रव्यपर्यायरूप से अनुभव किया जावे तो ये भूतार्थ हैं और सकल काल में अपने स्वभाव के स्खलित न होनेवाले जीवद्रव्य के स्वभाव को लेकर विचार किया जावे तो अभूतार्थ हैं। इससे यह निष्कर्ष निकला कि इन नव तत्त्वों में भूतार्थनय के द्वारा एक जीव ही प्रद्योतमान है क्योंकि वह द्रव्य है । द्रव्य स्थास्नु (नित्य) है, पर्याय अस्थास्नु (अनित्य) है अतएव नश्वर है। इस प्रकार एकपन कर द्योतमान जीव शुद्धनय के द्वारा अनुभव का विषय होता है और जो यह अनुभूति है वही आत्मख्याति है तथा आत्मख्याति ही सम्यग्दर्शन है, इस रीति से यह समस्त कथन निर्दोष है। अमृतचन्द्रस्वामी ने कहा है चिरमिति नवतत्वच्छन्नमुन्नीयमानं Jain Education International कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।८।। अर्थ- चिरकाल से यह आत्मज्योति नवतत्त्व के अन्तस्तल में लुप्त सी हो रही है। जैसे वर्णमाला कलाप में अर्थात् मिश्रित अन्य द्रव्यों के वर्णसमूह में सुवर्ण मग्न रहता है, किन्तु जैसे पाकादिक्रिया द्वारा शुद्ध सुवर्ण निकाला जाता है, ऐसे ही यह आत्मज्योति भी शुद्धनय के द्वारा विकास में लायी जाती है। अतएव हे भव्यात्माओ ! इसे निरन्तर अन्य द्रव्यों तथा उनके निमित्त से होनेवाले नैमित्तिक भवों से भिन्न एकरूप देखो। यह आत्मज्योति प्रत्येक पर्याय में चिच्चमत्कारमात्र से प्रकाशमान है। इस संसार में यावत् द्रव्य हैं वे सब अपने-अपने गुण-पर्यायों द्वारा ही परिणमन करते हैं । यदि काल की विवक्षा की जावे तो सभी द्रव्यों के परिणमन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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