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________________ श्रीसुपार्श्वजिनस्तवन ५५ अर्थ ॥ इमके० एरोते हेपनतमे अनंतगुण ना धणीबो ज्ञान दर्शन चारित्र वीर्य अव्याबाध अमूर्तता अगुरुलघु दान लान भोग नपनो ग कर्ता मोक्ता परिणामीकता अचल अविनासी अनंत अज अना श्रयी असरीरी अलाहारी अटोगी अलेशी अवेदी अकषादी असंख प्रदेसी अचल अक्रिय सुझसत्ता प्रागनावरूप नित्य अनित्य एक अ नेक सत् असत् नेद अनेद नव्यत्व अनव्यत्व सामान्य विसेष इत्यादि अनंतगुण पर्यायरूप धर्मनाधणीगे तेगुणगुणनो जुदोजुदो आनंद जेम संसारीजीवने धननो सुखभिन्न रूपनोसुखभिन्न नोजननोसुखनि न देखबानोसुखभिन्न थानकनोसुखभिल तेमसिपात्मा ने पण गुण गुण नो सुख भिन्न भिन्न तेथीअनंतो अनंतरीते यानंद एटला सर्व गुणनोआनंद सर्वनोनोगपण केमके भोगव्याविना आनंदथतोनथी एटले अनंतागुणना आनंदनो भोगअनंतो तेमज तेसर्वगुण ने विषे अनंतोरमणपण तेम अनंतागुणने आस्वादीने नोगीथयोथको आनंदनेविलसे माटेअनंतो आस्वादपण तेथीहेषनु तुमे परमानंदबगे गुणगुणीनो अनेद उपचार बोलाव्यो जेपरमानंदमटी तेहिज परमानंद एहवापरमदेव ॥ इतिसप्तमगाथार्थ ॥ ७ ॥ अव्यावाधरुचिथई ॥ साधेअव्याबाध हो ॥ जि० ॥ देवचंपदतेलहे॥ परमा नंदसमाधहो । जि० ॥ श्री० ॥ ७॥ अर्थ॥ एहवापरमानंद रूप अव्याबाघ सुख श्रीपरमात्म पनुनेविषेले तेनि रधारकरयो तिवारेजाएयुंजे एहवोज सुखमाहारेविषेपण एहवोजाणप गोषगट्यो तेथी नव्यजीवने उपयोग आव्योजे हुंपण ग्यानादिअनंतगु णी हवेमाहरो सुझानंदनोग किवारेषगटे एहबान पटोगे जेजीव जे टमहिनामां जेमबपैयो वृषातुर थश्ने वरसादना अनिलाषेवरते तेनी परे अव्याबाध सुखनो रुचीअनिलाषी थश्ने पुजलसंयोग जन्यसुख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003991
Book TitleDevchandraji krut Chovishi Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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