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________________ श्रीअनंत अनस्तवन १०७ धे वलि सम्यक्रशन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रटीगुणनीमाला के श्रेणी जेहमांजे एहवीअध्यात्मात्मरूप तेहनासाधन के नीपजाववानो व पाय ते सधे के ० नापजे ॥ इतिचतुर्थगाथार्थ ॥ ४ ॥ मोहोनूमीगसूरततुझ॥ दीगहोप्रनूदीगरु चिबदुमानथीजी॥ तुझगुणदोषनूतगणनास नयुक्त ॥ सेवेहोषनूसेवेतन नवनयनयीजी ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ हेअनुजीताहरी सुरत के थापना तेयाकाररूप सुंदरम जादीनी तेघणोज मीनके मिष्टलागी पणकेवीदीतीजे रुची मोदानिला षयुक्त तथा बहुमानसंयुक्त अत्यतंहरषेदीठी जे आजहुंधन्य कृत्यपु एय जेमवसुदेव हिममध्येकह्यो कोविहुपुनविन ॥ वविन पुत्वंचनव सहस्सेहिं ॥ तेणंजिणवरदसण || लंनोमयंजेलको ॥ १ ॥ तेथा छ हो वीतरागता अहोग्यानता अहोउपगारता अद्भुतता आश्चर्यताजे हुँ रंक दीन मोहेमन असंटामीने एमुखानोटोगबन्यो ते घणीजमोटी वात एहसाबहुमानेदीवी एहवी अरिहंतमुशते अरिहंत ना केवलझाना दिकगुण अनंतचतुष्टय तेहनानासन उपयोगयुक्त जेजीवसेवे पर्युपास नाव्य तथा नावथीकरे तेहने भवके । संसारनो भानथी उक्तंच ३ कोविनमुक्कारो ॥ जिनवरवसहस्सवचमाणस्स ॥ संसारसागराज ॥ ता रेश्नरंवनारंवा ॥१॥ इतिवचनात् ॥ इतिपंचमगाथार्थ ॥ ५ ॥ नामहोपन्नामेअदभूतरंग ॥ वगाहोपनत्व गादीनुल्लसेजी ॥ गुणआस्वादहोषनगुणअस्वा दअनंग ।। तन्मयहोनुतन्मयतायेजधसेजी॥६॥ अर्थ वलि हे अनुतमारोनामसानल वाथी अद्भुत के विस्मटानूत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003991
Book TitleDevchandraji krut Chovishi Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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