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है। दादागुरुदेव की छतरी छिन्न-भिन्न अवस्था में दादा-पोता की छतरी के नाम से प्रसिद्ध थी। जिसका कुछ वर्षों पूर्व ही श्री विनयचन्द धांधिया के तत्वावधान में जीर्णोद्धार हुआ है। लेखांक ७५४ के अनुसार एक कुआँ भी था, आज उसका पता नहीं है। ___ लेखांक ७५५- सम्वत् १९५६ में संग्रामपुर (सांगानेर) में महाराजा श्री मानसिंह जी के विजय राज्य में महामंत्री कर्मचन्द्र ने दादा जिनकुशलसूरि जी की पादुका स्थापित की थी और इसकी प्रतिष्ठा युग-प्रधान जिनचन्द्रसूरि के विजय राज्य में वाचनाचार्य यश:कुशल ने की। यह सांगानेर की दादाबाड़ी आज भी चमत्कारी स्थानों में गिनी जाती है।
विचारणीय- लेखांक ५३९ से ५४८- सम्वत् १९०५ के लेखों में प्रतिष्ठापक के रूप में श्रीखरतरगच्छे श्री जिनरत्नसूरिभिः' लिखा है। इन जिनरलसूरि का खरतरगच्छ की मूल परम्परा एवं शाखाओं के पट्टधर आचार्यों के वर्णन में उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। सम्भवतः पट्टधर आचार्य न होकर किसी शाखा के अनुवर्ती आचार्य हों।
लेखांक १९२- सम्वत् १७०८ (?) का लेख सम्वतानुक्रम में स्थान पा गया है। वस्तुत: यह विक्रम सम्वत् न होकर शक सम्वत् है। इस लेख के अन्त में सन् १९०१ (?) दिया है। वह भी शक सम्वत् से मेल नहीं खाता है।
आभार
इस पुस्तक के लिए मेरे हार्दिक अभिलाषा थी कि इस पुस्तक का प्राक्कथन किसी पुरातत्त्व और इतिहास के मूर्धन्य विद्वान से लिखवाई जाए। प्रो० श्री रमेशचन्द्रजी शर्मा से मैंने पत्र व्यवहार किया और उन्होंने प्राक्कथन लिखने की सहज भाव से स्वीकृति प्रदान की।
वे वर्तमान में ज्ञान-प्रवाह सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र, वाराणसी के मानद निर्देशक/आचार्य हैं। पूर्व में राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान, नई दिल्ली
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