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________________ हुई कि इसकी भूमिका किसी प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् से लिखाई जाए। मैंने पुरातत्त्ववेत्ता स्वनामधन्य डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, प्रोफेसर, काशी विश्वविद्यालय, वाराणसी से पत्र-व्यवहार किया। उन्होंने सहज भाव से स्वीकृति भी दी और यह सुझाव दिया कि "इस पुस्तक के लेखों में आगत श्रावक-श्राविकाओं के नामों की अकारानुक्रमणिका भी अवश्य दी जाए।" इस सुझाव को मैंने सहर्ष स्वीकार किया और प्रतिष्ठा लेख संग्रह के प्रथम भाग के परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया। सम्माननीय श्री अग्रवाल जी ने उसकी भूमिका भी लिखी। उनकी भूमिका के साथ यह पुस्तक सन् १९५३ में प्रकाशित हुई। भूमिका में उन्होंने लिखा था : "उपाध्याय श्री विनयसागर जी ने अपने प्रवासकाल में नागौर, मेड़ता, अजमेर, किसनगढ़, जयपुर, कोटा और रतलाम आदि स्थानों के जैन मंदिरों में सुरक्षित मूर्तियों के लेखों का संग्रह किया था। वही इस संग्रह के रूप में प्रस्तुत है। इस संग्रह में बाहर सौ लेख हैं। श्री विनयसागर जी साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति हैं। धर्म-प्रचार के साथ-साथ अपनी यात्रा को उन्होंने इस प्रकार के सुन्दर और उपयोगी साहित्यिक यज्ञ में परिणत कर दिया, इसके लिये मैं ऐतिहासिक जगत् की ओर से उनका विशेष अभिनन्दन करता हूँ। सचमुच जहाँ कुछ नहीं था वहाँ से भी उन्होंने ऐतिहासिक सामग्री का यह बड़ा सुमेरु खड़ा कर दिया है। अपने देश में यदि उचित रीति से ऐतिहासिक अनुसंधान का कार्य किया जाय तो कितनी अपरिमित सामग्री संकलित की जा सकती है, इसका सुन्दर दृष्टान्त विनयसागर जी का यह प्रयत्न है।" प्रतिष्ठा लेख संग्रह प्रथम भाग और प्रतिष्ठा लेख संग्रह द्वितीय भाग के प्रकाशन के अन्तराल में तीर्थों के इतिहास सम्बन्धी पुस्तक लिखने का मेरे कार्यक्रम चालू रहा। नाकोड़र्श्वनाथ का इतिहास लिखते हुए मैंने तत्रस्थ २५० मूर्ति-लेखों का संग्रह किया था। वह नाकोड़ा पार्श्वनाथ (ii) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003984
Book TitlePratishtha Lekh Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherVinaysagar
Publication Year2003
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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