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"वया यह ऊन का है ?" मैंने कहा-"हाँ ।” तो उस द्वारपाल ने कहा"तो आप भीतर नहीं जा सक्तते ?” मैंने कहा-"क्यों ?" उत्तर-“पहिले तो आप श्वे० साधु हैं दूसरे आपके पास ऊन है !” जब पुनः आफिस से इजाजत प्राप्त कर मन्दिर के सभामण्डप में पहुंचा, तो आफिस की तरफ से एक कर्मचारी मेरे साथ साथ जासूस की तरह लगा रहा, मानों मैं कोई भेदू मन्दिर के भेद लेने आया हूँ। अस्तु, मेरी दर्शन करने की भावना भी कुण्ठित हो गई और इस साम्प्रदायिक मनोवृत्ति पर कुछ क्षोभ भी हुआ। मैं ऐसी परिस्थिति में दर्शन भी ठीक तरह से नहीं कर सका अतः वहां से चलकर मैंने 'हिण्डोन' आकर विश्राम किया।
इस प्रकार की तथा इससे कुछ भिन्न प्रकार की कई घटनाएं इस प्रवास में अन्यत्र भी हुई। उनका यहाँ उल्लेख करना भी अनवश्यक सा प्रतीत होता है।
इस प्रकार केवल जयपुर राज्य के लगभग १००० लेख मैंने संगृहीत कर लिये, किन्तु ८-१० ग्रामों के लेख अवशिष्ट रहने के कारण इसको मुद्रण के लिए प्रेस में न दे सका। विचार था कि भविष्य में इधर का एक दौरा और करके इस कार्य को पूर्ण कर लूगा, पर विचार विचार ही रहा और वह आज तक ७ वर्ष पूर्ण होने पर भी पूर्ण नहीं हो सका और अब तो आशा भी नहीं रही।
हाँ, तो दूसरा प्रवास पूर्ण कर कोटा आगए थे। यहाँ आने के कुछ समय पश्चात् अर्थात् सं० २०२४ में मेरी मानसिक वृत्तियाँ बदली । अब मुझे अपनी अपूर्णता का अनुभव हुआ । इस समय 'पढ़ाई-चोर' जीवन पर हृदय में पश्चाताप भी हुआ। अतः अन्य सारी प्रवृत्तियों को ( चाहे वे साहित्यिक भी क्यों न हों) त्याग कर विद्याभ्यास में ही मैं एकनिष्ठ हुआ। कुछ समय पश्चात् मेरे विद्यागुरु डा० फतहसिंहजी के संरक्षण व प्रयत्न और परिश्रम से मैंने साहित्याचार्य, जैन दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, काव्यतीर्थ आदि उपाधियाँ सं० २००७ के अन्त तक प्राप्त की। तदनन्तर सम्पादन कार्य में व्यस्त हो गया।
मेरा गत चातुर्मास अहमदावाद था । उस समय में 'सहस्रदलकमलभय भरजिनस्तव' के सम्पादन और 'वल्लभ-भारती' के ग्रन्थों की प्रेसकापी करने में व्यस्त था। इन्हीं दिनों सुहृदों ने मुझ से कहा कि "आपने जो मूर्तियों के लेख संग्रह किए हैं उनको प्रकाशित क्यों नहीं करवा देते? प्रकाशित हो जाय तो पुरातत्त्वज्ञ उसका उपयोग करेंगे अन्यथा परिश्रम पूर्वक
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