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________________ अस्तु, मैं भी नामलिप्सा से अभिभूत होकर इस कार्य में संलग्न हो गया। पूज्येश्वर गुरुदेव की आज्ञा और आशीर्वाद को प्राप्त कर फाल्गुन मास में श्रीसंघ के, विशेषतः श्री गुलाबचन्दजी सा० ढढ्ढा और श्री सोहनमलजी गोलेछा, सा० श्री हमीरमलजी गोलेछा के सहयोग से विहार के. लिये जयपुर से चल पड़ा । दोसा, बसवा, मण्डावर, महावीर जी, हिण्डोन, वजीरपुर, गंगापुर, मलारणा का डूगर, सवाई माधोपुर, टोंक, चाडसू, सांगानेर होकर मैंने प्रथम दौरा १५ दिवस में २२५ मील चलकर पूर्ण किया और पुनः गुरुदेव की सेवा में जयपुर आ पहुँचा। दूसरे दौरे में जोबनेर, फुलेरा सांभर, नरेना, दूधु, पचेवर, मालपुरा, टोडारायसिह, पनवाड़ होकर मैं कोटा पहुँच गया । इस प्रकार लगभग ४० गाँवों के लेख संग्रह कर चुका था केवल शेखावाटी प्रदेशस्थ ग्राम ही अवशिष्ट रहे थे। दोसा महावीरजी तथासवाई माधोपुर वाले प्रथम प्रवास में मुझे वहाँ के दि. जैन मन्दिरों के व्यवस्थापकों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति का अवांछनीय परिचय मिला। सर्व प्रथम महावीरजी का ही लीजिये । यह तीर्थ वस्तुतः श्वेताम्बरों का ही है। इसके निर्माता और प्रतिष्ठाता श्वेताम्बर ही थे । लगभग इसी एक शती से इसकी व्यवस्था दिगम्बर जैनों के हाथ में गई । व्यवस्था दिगम्बर जैनों के हाथों में होते हुए भी कई विशिष्ट अधिकार पल्लीवाल श्वेताम्बर जैनों को प्राप्त थे। पर जो देवालय और देवमूतियाँ आदर्श की, सन्मार्ग की और आध्यात्मिकता की प्रतीक थीं, उनको अहम्मन्यता की भावना से साम्प्रदायिक कर्दम के दल-दल में फंसाकर सारे 'आदर्श' समाप्त कर दिये थे। यहां तक कि श्वेताम्बर जैनों का पूजन दर्शन आदि व्यवहार भी बन्द कर दिया गया। फलतः 'कानून' की उपासना में दोनों दलों ने अपने रक्तसिञ्चित द्रव्य को न्योछावर करना प्रारंभ कर दिया । वस्तुतः इन साम्प्रदायिक तत्त्वों ने जैनत्व क्या मानवता को ही कलंकित किया है। प्रवास में भ्रमण करता हुआ, म महावीरजी के दर्शन करने और वहाँ के लेख लेने की भावना से लगभग १२ बजे पहुंचा। द्वार पर ही द्वारपाल ने श्वेताम्बर जैन साधु का वेष देखकर मुझे रोका और कहा"आप श्वे० साधु हैं, इसलिये आप अन्दर नहीं जा सकते ।” खैर यहाँ के आफिस से इजाजत प्राप्त करने पर मैं भीतर गया, पर मन्दिर के प्रवेश द्वार पर फिर द्वितीय द्वारपाल ने मेरे 'रजोहरण' (धर्म-चिह्न, जो प्रत्येक श्वेताम्बर साधु के पास रहता है) को देखकर प्रश्न किया कि, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003983
Book TitlePratishtha Lekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherVinaysagar
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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