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________________ - - ये मूल्यवान हैं । भाषाशास्त्र की दृष्टि से श्रावक-श्रावकियों के नामों का कम महत्व नहीं है, क्योंकि अधिकांश नाम अपभ्रंश और तत्कालीन लोक भाषा के रूप को प्रकट करते हैं। मध्यकालीन भारतीय नाम अपभ्रंश के सांचे में ढल गए थे। भाषाशास्त्र की दृष्टि से उन नामों का अध्ययन करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिये चौदहवीं शती के लेखों में जाल्हण, माहण, गोलण, झाँकँण, चाहड़, कल्हण, वीसल, कडुआ, बाहड़, लूणग, राजड़, आहड़, देदा, गोगा, माल्हण, उजोअण, तिहुण, गोसल, दाहड़, आदि नाम मिलते हैं। इनमें से कुछ नामों की ब्युत्पत्ति तो समझ में आती है। जैसे-बाहड़, वाग्भट्ट का रूप है।' चाहड-त्यागभट्ट, बीसल-विश्वमल्ल, लुणग-लावण्यप्रसाद, तिहुण-त्रिभुवन, उजोश्रण-उद्योतन, कल्हण-कल्यदेव, कडा-कटुक से लोक भाषाओं में बने हुए रूप हैं । गोगा, गोगाक, गोगिल ये तीन नाम जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह में भी आए हैं। 'पाइय सद्द महण्णवो' के अनुसार गौग्गह ( सं० गोग्रह ) नाम का शब्दार्थ गौओं को आक्रमणकारियों से छीनने वाला, ऐसा विदित होता है । गोग्गह से देश भाषा में गोगा नाम विकसित हुआ जान पड़ता है। गोसल (प्रश० संख्या १०७) और उससे संबन्धित गोसली, गोसा जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह में भी आए हैं (पृ० १७१ ) हेमचन्द्र की देशी नाममाला के अनुसार गोस-प्रभात । अतएव गोसल उस बच्चे का नाम हुआ जिसका जन्म ब्राह्ममुहूर्त में हुआ हो। माल्हण ( प्रशस्ति संख्या १०३ ) से मिलते जुलते अन्य नाम मल्हना, मल्हा, मल्हादे मुनि जिन विजय जी की सूचियों में हैं । इन नामों का सम्बन्ध लीला वाचक अपभ्रंश मल्ह धातु से है। भविम्सयत्त कहा ( दलाल पृष्ठ १५३ ) मे मल्हते-लीलायमाना । देशीनाममाला ६ । ११६ में मल्हरण लीला। अथवा महापुराण २६॥ २५॥ ५ वैद्य संस्करण के अनुसार मल्हण= मदयुक्त । इस प्रकार अपभ्रंश, देशी और लोक भाषाओं में कई शताब्दियों की सामग्री हमारे सामने भाषा शास्त्र के अनुसंधान का नया क्षेत्र प्रस्तुत करती है । नामों के इस प्रकार के रूप प्रस्तुत संग्रह के बारह सौ लेखों में से यदि सब एकत्र किये जाँय तो उनके अध्ययन में एक स्वतंत्र पुस्तक ही लिखी जा सकती है। रोचक होते हुए भी इस विषय को यहाँ आगे बढाना उचित नहीं जान पड़ता। देदा नाम देद्दक से भी और आगे घिस कर बना हुआ जान पड़ता है। भण्डारकर लेख सूची सं० १३७८ के अनुसार देदक एक शिल्पी का नाम था मूल में संस्कृत देवदत्त से देहक रूप का विकास संभव ज्ञात होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003983
Book TitlePratishtha Lekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherVinaysagar
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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