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________________ दानवीरका स्वर्गवास । [८४९ शमां सीधाज्या, पण आपणी पाछळ रहेला दिगंबर जैनगणनी शी अवस्था थशे? छोडवाओनी दरकार राखनार खरो माळी चाल्यो गयो, पछीथी उद्यान शोभा केवी रीते नवपल्लव कुसुमवासित थाय ? प्रजान्तक आ दयाशीळ जैनोनो शो अपराध हतो के हें छळ कपट करी हेमना परोपकारी जीवडाने त्हारी पासे बोलावी लीधा. अरे जनापकारिन् प्रजान्तक ! खरेखर मनुष्योने फसाववाने तुं कई कई उपाय करी रह्यो छ. अरे विधि ! तुं जाणे छ के हुँ तो आ जगतमा एक जातनी क्रीडा करुं छु, पण " कागडानुं बेसबुं अने ताडनुं पडवू " ए प्रमाणे खरेखर अमारूं तो आथी विपरीत थयुं छे. अरे ! आ समये जो कोई मृत्युभूमिना माणसे आवो छळ कपट को होत तो अमे न्यायमंदिरमा जईने तेनी सामे लढत, पण हवे हे क्रूर विधि ! हारी सामे अमे कया न्यायमंदिरमां नईने दावो करीए अने त्यां अमारो पक्ष करनार कया वकील या बेरीस्टरने शोधवो ? अमारे नसीब तो हमेशने माटे रोदणां रडवानां रह्यां अने अमें ते प्रमाणे रोदणां रडीशं. __महात्मन् ! सर्व सामग्रीथी भरेला वहाणना जेवी तमारी मान. सिक समृद्धिनी स्थिति हती थी जे बंदरे आ वहाण उतरतुं त्यां यश दाखवतुं अने विनयी प्रकाशतुं. आपे आपनुं जीवन जीवनतत्त्वनो ए गंमीर अर्थ करी गाळयुं हेतुं. आपना हृदय-गिरिमांथी अनुकम्पा, स्नेह, उत्साह, प्रशभ, संवेग, आस्तिक्य अने औदार्यनां विमळ झरणां हमेशां वह्यां करतां हता. जीवननी गांभीर्यताना विचारे आपना हृदय उपर एटली ऊंडी असर करी हती के तेथी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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