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अध्याय तेरहवां । कितनेक शोकजनक पत्र । श्रीयुत सेठ नवलचन्दजी हीराचन्द जौहरी, बम्बई,
· स्वर्गीय स्वनाम धन्य दानवीर सेठ माणिकचन्दनीके असमय वियोगका जो असह्य शोक आप पर और आपके परिवारपर आकर पड़ा है वह ऐसा नहीं है कि शब्दोंके द्वारा प्रकट किया जा सके। हमको सूझ नहीं पड़ता कि हम आप लोगोंके शोक सन्तप्त हृदयको किन शब्दोंसे शान्त करें, और आपको धीरज बंधावें ।
इस शोकका आपके ही समान प्रत्येक सहृदय जैनी अपने हृदयमें अतिशयताके साथ अनुभव कर रही है। क्योंकि स्वर्गीय सेठजीने अपने कृत्योंसे प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें सदाके लिये स्थान बना लिया है। उन्होंने जैन समाजपर जो २ उपकार किये हैं वे बहुत बड़े और चिरस्थाई हैं। जैन समान उनके उपकारों के एक अंशका बदला देनेको भी समर्थ नहीं है। इसलिये उनके वियोगका शोक होना हम लोगोंके लिये भी बिल्कुल स्वाभाविक है। हमें नहीं सम पड़ता कि हम आपके प्रति सहानुभूति प्रकट करें या अपने शोक प्रति औरोंकी सहानुभूतिकी आशा करें । इसलिये सेठ जीके दुःख में हम और आप समदुःखी हैं। इस समय इस शोकसे मुक्त होनेका इमके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि हम संसारके स्वरूपका चितवन करें। इसका यह नियम ही है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती । “मरणःप्रकृति शरीरिणाम्।" मृत्यु होना प्राणी मात्रके लिये स्वाभाविक है। इसका विचार करके आप लोग शोकका परित्याग करें और सेठजी जो कीर्तिका मार्ग
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