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महती जातिसवा द्वितीय भाग। [६२१
(९) निर्जरा भावना । ग्रह देख कर्म मल ढेर भयंकर भारी ॥ ध्यानाग्नि मूल एकादश तप हितकारी ॥ तू मेल्हके ध्यान समाधि अग्नि प्रगटावै ॥ धग धगसे बलै सब कर्म निर्जरा छावै ॥
(१०) लोक भावना। हैं पुरुषाकार अकृत्रिम लोक अनादि ॥ षट द्रव्य दिखावै रूप करें बरबादी ॥ चित रज नभ धर्म अधर्म काल आबादि ॥
तू सिद्ध लोकको खोज रहित दुख व्याधि ॥ १० ॥ (११) बोधि दुर्लभ भावना ॥ चउ असी लाख कोठोंमें फिर फिर आया । पर रत्नत्रयका पता कहीं नहिं पाया ॥ अति दुलर्भ है, निज हृदय बकसका खुलना ॥ सम्यक्त तालिसे खुले बोधित्रय मिलना ॥ ११ ॥
(१२) धर्म भावना । है धर्म आपका रूप उसे नहीं जोवें ॥ पर रूपोंमें निज धर्म जान पत खोवैं ॥ दश धर्म दों संजम तीन रत्न हैं तारक ॥ भावों भावो निज धर्म आत्म उद्धारक ॥ १२ ॥
भावना फल। बारह भावोंको भाव नित्य संसारी ॥ ज्यों रात मिथ्यातम मिटे प्रभा हो जारी ॥ आतम सूरजका भेद ही ज्ञान उजियाला ॥ जिसके प्रगटेत पीवै अमृत प्याला ॥ १३ ॥ ज्यों ज्यों स्वतृप्तता बढ़े विषय सुख भूले ॥ चारित्र नाग तिस घरके द्वारपर झूले ।
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