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महती जातिसेवा द्वितीय भाग। [६१७ धर्ममें लगावें पर वचन और काय दोनोंकी क्रिया मानसिक भावको प्रगट करनेसे लाचार हो गई थी। अंतमें तडफ़२ कर सिर पटकर कर बहुत दुःखसे ३ दिन ही बीमार रहकर प्राण त्याग दिये थे। धन होनेपर भी एक पैसेका भी दान न कर सके । इस असमय वियोग व अनित्य संसारकी घटनाने शीतलप्रसादके चित्तमें बहुत बड़ा असर जमा दिया और इनको अपने आपकी फिकर पड़ने लगी। सर्वसे बड़े भाई संतलालजी सकुटुम्ब थे। उन्होंने बहुत चाहा कि शीतलप्रसाद सब कारवार सम्हाले और गृह जंजालमें फंसे पर शीतलप्रसादका मन जो । दिनमें माता, स्त्री व लघु भ्राताके वियोगसे पहले ही उदास था, अब इस दृश्यके होनेपर कैसे जम सकता था। १९ व २० दिन बाद शीतलप्रसाद बंबई आगए। और अमृतचंद्र महाराजकृत समयसार कलशोंका अर्थ श्रीमती मगनबाईके साथ विचारने लगे। इन श्लोकोंमें अद्भुत रस है। इनका मनन चित्तको बहुत शान्ति देने लगा । इस दिन ये ही सब बातें याद आने लगीं। मनने कहा कि तू न तो गृही है न त्यागी-यह बीचकी अवस्था अच्छी नहीं। एक तरफ होनाना चाहिये, तुर्त ही श्री महावीर स्वामीका जीवनचरित्र हृदयके सामने आ उपस्थित हुआ कि प्रभुने ३० वर्षकी आयुमें गृहवास छोड़ दिया था इसी लिये कि आत्माके भीतर भरे हुए रत्नत्रय भंडारको प्रकाशमें लाया जाय। तू तो ३१ वर्षका हो चुका । आयुकायका कोई भरोसा नहीं। यह अवसर चुकेगा तो फिर भेद विज्ञान द्वारा आत्मोन्नति करनेका अवसर हाथ आना अति कठिन हो जायगा । ऐसा विचार त्यागकी ओर वृत्ति जमी
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