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महती जातिसेवा द्वितीय भाग । [५४५ कायदेसे होती न जीर्णोद्वारकी ओर ध्यान दिया गया । जो यात्री वहां जाते उन्हें धर्म साधनमें व ठहरने आदिमें व मंदिरजीकी कुव्यवस्थाको देखकर बहुत दुःख होता था। यह सब समाचार सेठनीको जबानी व पत्रद्वारा मालूम होते रहते थे, इसलिये इस क्षेत्रका सुप्रबन्ध किस तरह हो यह ही बड़ी भारी चिंता सेठजीको थी। अजमेरके एक जवाहरातके दलाल पन्नालाल दिगम्बर जैनी थे, जो बहुधा सेठजीको बंबई में मिला करते थे। एक दफे इनसे आवूजीका वर्णन आगया, तब पन्नालालजीने कहा कि आबूमें मेरे एक मित्र बाबू पूनमचंद कासलीवाल एजन्ट साहबके दफ्तर में अकान्टेन्ट हैं यह बड़े धर्मात्मा हैं । मैं इनको आबूजीकी व्यवस्थाके लिये ज़ोर देकर लिखता हूं। आप कमेटी द्वारा पत्रव्यवहार करें । तब सेठनीको बड़ा हर्ष हुआ । दफ्तर द्वारा ता० १ नवम्बर १९०७ को पूनमचंदनीको आबू पत्र लिखा तथा दिगंबरी मंदिरोंका प्रबन्ध अपने हाथमें लेनेके लिये पूरा अधिकार दिया। पूनमचन्दनीका दबाब सबपर था । आपने श्वेताम्बरियोंसे मिलकर बहुत समाधानोके साथ प्रबन्धको अपने हाथ में लिया । सेठजीने अपनी तरफसे पूजाका सामान वर्तन और शास्त्र भेजे तथा कमेटीसे १ पूजारीको भिजवाया । ता. २१ फरी १९०८ से पुजारी और अन्य ८ सेवक नियत किये गये और दोनों मंदिरों में शास्त्रानुसार अष्टद्रव्यसे पूजन प्रक्षाल होने लगा। फिर सेठजीने यात्रियोंके आरामके लिये धमशालाके वास्ते लिखा । उस समय अलग जमीन न मिलती हुई देखकर पूनमचन्दजीने उस बड़े मंदिरजीके हातेमें ही चारों ओर धर्मशाला बनवाना ठीक समझा । तब सेउ माणिकचन्दजीने पुराने बरांडेमें ४
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