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________________ महती जातिसेवा द्वितीय भाग। [५०१ अभिनन्दनपत्रमिदम् । दोहा-सज्जन गुणी दयालुचित, दानवीर कुलचन्द । अहोभाग्य आये यहाँ, श्रेष्ठी माणिकचन्द ॥ श्रीमान् जैनधर्म प्रतिपालक दानवीर सेठ माणिकचन्दनी जैन जौहरी जे. पी. (J. P.) बम्बई । महोदय ! हम समस्त आगरानिवासी जैनी भाई आन परमहर्षको प्राप्त हुए हैं कि जो आपने इतना महान् कष्ट सहन कर यहां ( आगरेमें ) पधारनेकी ( जैनसमाजकी उन्नतिके लिये ) कृरा की है। इससे हम लोग आपके परम धन्यवादी हैं और श्रीमान्की दयालुता तथा सज्जनता खम् धर्मप्रीतिपर दृढ़ताका परिचय तो हम लोगोंको आपके स्थापित किये पुस्तकालय, विद्यालय, औषधालय, धर्मशाला, अनाथालय, जैन बोर्डिङ्ग हाउस व जनसमाज एवम् अनेक धर्म कार्योसे तथा समस्त तीर्थक्षेत्रोंके सुप्रबन्धसे मिल चुका है । श्रीमान्ने हाल ही में अपवित्र वस्तु खांड, केसर आदिके न. वर्ते जानेका अपने यहां जो प्रबन्ध किया है एवम् और बहुतसे ऐसे धर्म कार्य हैं जिनमें आप कटिबद्ध रहते हैं और जो कि आपकी अपने धर्ममें दृढ़ विश्वामता तथा अपनी जातिसे अटल प्रेमका परिचय देते हैं, आपका यश दसों दिशामें सुगन्धित भरा हुआ व्याप्त और प्रफुल्लित हो रहा है । सो आपकी इन कृपाओंके बदले में हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं जिसे हम क्षुद्रबुद्धि मनुष्य आपकी प्रशंसा कर सकें । हम आपके इस आगरा नगरीमें साक्षात् दर्शन करके ऐसे प्रफुल्लित और हर्षित एवम् गदगद हुए हैं कि जिह्वाग्रमें कोई स्थान नहीं है कि जिससे एक बात भी आपकी प्रशंसाको मुखसे उच्चारण कर सकें, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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