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________________ २९४ ] अध्याय आठवाँ। जैन बोधक सन् १८८५ से निकला है परंतु उसमें जैन स्त्री शिक्षा सम्बन्धी लेख अंक १३५-१३६ नवएक जैन भगिनीका म्बर- दिसम्बर १८९६ के पहले नहीं देख-- लेख। नमें आया। इस अंकमें एक बड़ा जोशदार लेख आदिराज देवेद्र उपाध्यायने मुद्रित कराया था। इसको पढ़कर एक गुमनाम जैन भगिनीने अंक १३८ फेब्रुआरी १८९७ में एक मराठी लेख प्रगट करके बहुत हृदयविदारक दशा स्त्रीशिक्षाके अभावकी बतलाई है कि लोग ऐसा कहते हैं कि दूसरेके घर जानेवाली कन्याकी इतनी कौन परवाह करे ? यदि कोई पति अपनी अर्धांगिनीको सिखाने लगता है तो चारों तरफ उसकी निंदा होती है। पूर्वके समान आर्यिका आदिका सम्बन्ध भी नहीं मिलता। इस जैन बहनने प्रार्थना की है कि अपनी कन्या व बहनोंको पढ़ाना चाहिये। उनके लिये छात्रवृत्ति व इनाम नियत करना चाहिये। यह जैन भगिनी कौन है ? कैसी आवश्यक्ता इसने स्त्री शिक्षाकी बताई है ? ऐसा विचार इस लेखको पढ़ते ही सेट माणिकचंदजीका हुआ और अबतक आपको स्त्री शिक्षाका बहुत तुच्छ ख्याल था पर इस लेखने आपको इधर भी आकर्षित कर दिया और यह स्त्री शिक्षाकी भी भावना करने लगे। जैन बोधक जून १८९७में यह पढ़कर कि फलटनके शा. मोतीचंद मलुकचंद कालुसकरने कोल्हापुरकी एक जैन कृष्णाबाईको ५) मासिककी छात्रवृत्ति देना स्वीकार की है व कोल्हापुरकी ४ विद्यार्थिनी रत्नकरंड श्रावकाचारका अभ्यास करती हैं, सेठ मणिकचंदको बड़ी ही खुशी हुई और यह सोचने लगे कि यह सब उस जैन भगिनीके लेखका असर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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