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________________ २३६ ] अध्याय सातवाँ | एक दिन सेठ माणिकचंदने भाई पानाचंद और नवलचंद से सम्मति की कि सूरत में यात्रियोंके आरामका सूरतमें चन्दाबाड़ी व अपनी बिरादरीके जमीन आदि उत्सव करने का कोई स्थान नहीं है अतएव श्रीचंद्रप्रभुजी के मंदिर के पास के स्थानको लेकर एक धर्मशालाका निर्मार्पण | सुन्दर धर्मशाला बनवा दीजाय तो बहुत अच्छा है । भाइयोंने पसन्द किया और इस कार्य में २००००) खर्च करनेका निश्चय किया । सेट माणिकचंद सूरत आए और नकसा वगैरह ठीक करके काम लगा गए । यह धर्मशाला संवत् १९४८ में बनकर तय्यार होगई । यह बहुत सुन्दर कमरोंसे शोभायमान है, हरतरहका आराम है । जीमनके लिये बड़ा स्थान है । इसका नाम भाइयोंने श्री चंद्रप्रभुके नामसे चन्दावाडी रक्खा । तथा इसके खर्चको चलाने के लिये इसके आधीन बम्बईके पहले भोईवाड़े में एक मकान ले लिया और इस वाड़ी व मकानको संवत १९५६ में एक ट्रष्ट कमेटी के आधीन करके उसका ट्रष्ट कर दिया। इससे परदेशी जैन यात्रियों को ठहरनेमें बहुत आराम मिलता है । पालीतानामें पाठकों को मालूम ही है कि धर्मचंद मुनीमके द्वारा मंदिर निर्माणका काम चल रहा था परंतु इससे ही सेठजीको संतोष नहीं हुआ वे हरमासके कामका व्यौरा मंगाते थे और जब कभी आवश्यता होती फौरन चले जाते थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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