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अध्याय सातवा ।
: (१) अजैनोंको बताना कि जैन मत नास्तिक नहीं है।
(२) धार्मिक विद्याकी वृद्धि कराना । - (३) जैन विद्वानोंके कितने विषयों में भिन्न मतोंको मिलाकर एक मत करना।
(४) शकाओंको प्रगट कर विद्वानोंका समाधान प्रकाशित करना।
(५) यात्रा सम्बन्धी हाल प्रगट करना । (६) तीर्थक्षेत्रों आदिका हिसाब मंगाकर प्रगट करमा ।
(७) देश भिन्न होनेसे जो रीति भिन्न पड़ गई है उनको ज्ञास्त्रके अनुसार कराके परस्पर संबंध दृढ कराना।
(८) विवाहादि कार्य शास्त्राधारसे चलवानेका प्रयत्न करना । (९) विद्या व नीति मार्गकी वृद्धि की प्रेरणा करना।
इसका पहला अंक सेठ माणिकचंदजीके पास भी भेजा गया था पर उसको किसी औरने लेलिया था-सेठजीक देखनेमें नहीं आया। एक दिन मंदिरजीमें सेठजीको किसीने एक छापी हुई पुस्तक देदी, उसको देखकर आपको बहुत ही हष हुआ कि जैनियोंमें भी पत्र निकलना शुरू हुआ। आप यकायक सब बांच गए। सम्पादक अपने मित्र सेठ हीराचंदजीको समझकर इनको इस बातसे बहुत खेद हुआ कि सेठ हीराचंद नेमचंदने मुझे सीधे पत्र क्यों नहीं भेजा ? अभी तक सेठ हीराचंदके साथ सेठ माणिकचंदका दिल खोलकर पत्र व्यवहार व मेल नहीं हुआ था। अतएव बहुत सन्मानके साथ सेठ माणिकचंदने अपनी दूकानके नामसे एक पत्र लिखा। पाठकोंको उचित है कि इस पत्रको खूब ध्यानसे पढ़े। इससे उनको
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