SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२] अध्याय सातवाँ । की यात्राका हाल भी कहा कि तीर्थोकी व्यवस्था योग्य नहीं है, प्राचीन मंदिर बेमरम्मत पड़े हैं, अंतमें आपने बताया कि हमारी रायमें अब विना खास आवश्यकताके नवीन श्रीजिनमंदिरजी बंधवानेमें द्रव्यको न लगाकर प्राचीन मंदिरोंका जीर्णोद्धार करना चाहिये, तीर्थोकी व्यवस्था सुधारना चाहिये, वहांका हिसाब ठीक कराना चाहिये, धर्मशालाओंकी दुरुस्ती कराना चाहिये, पाठशालाएं आदि स्थापित करना चाहिये, जो इंग्रेजी पढ़नेवाले छात्र धर्मशिक्षा लेवें उन्हें पारितोषिक व मासिक छात्रवृत्ति देनी चाहिये, शुध्र ग्रंथ लिखाने चाहिये व मेरी रायमें तो यदि ग्रन्थ छपाएं जाय तोमी कुछ हर्ज नहीं है। इस बातको सेठ हीराचंदने दबे शब्दोंमें इस लिये कहा था कि उस समय ग्रन्थ छपनेकी बात भी कोई नहीं करता था व जो ऐसा कहता उसे बहुत निन्द्य समझते थे । सेठ माणिकचंदजी बड़े गुणग्राही थे और उत्तम बातको उसी तरह अपनेमें लीन करते थे जैसे कोमल भूमिमें मेघका पानी समा जाता है, सेठ हीराचंदकी बातोंको दिलमें जमाकर उनकी पूर्तिका मनन करने लगे। थोड़ ही दिनोंबाद सेठ माणिकचंदनी सूरत गए और श्री चंद्रप्रमुनीके बड़े जिन मंदिरको जिसके चंद्रप्रभुके मन्दिरका जीर्णोद्धारमें अमिसे भस्म होनाने पर सेठ पुनः जीर्णोद्धार । हीराचंदजीने बहुत उद्योग किया था फिर जीर्ण दशामें देखकर उसका उद्धार करना ऐसा मनमें निश्चय किया और बम्बई आकर अपने भाइयोंसे सम्मति करके जीर्णोद्धारके वास्ते प्रबन्ध किया। मंदिरके नीचे श्री चंद्रप्रभू स्वामी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy