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अध्याय चौथा।
होना ही चाहिये। विनलीबाईने पचीस २ रुपये श्री सम्मेदशिखर, पावापुर, चम्पापुर, गिरनार सिद्धक्षेत्रों में, १५) पालीताना सत्रुजय, १५) श्री गजपंथाजी, १५) श्री पावागढ़नी, १५) तारंगाजी सिद्धक्षेत्रोंमें, ४०) भूखोंको अन्नादि घटनेमें और शेष रुपये शास्त्रदानमें देनेको कहे। साहजीने सब लिख लिया। ... हीराचंदको भी.मनमें निश्चय हो गया कि अब इसका शरीर चलता हुआ नहीं मालूम होता । हेमकुमरी भी उन दिनों सूरतमें ही थी। वह भी आ गई। रात्रिको विजलीबाईने हेमकुमरीसे कहा कि, हेम! आज रात्रिको मेरा शरीर नहीं रहेगा ऐसा मालूम होता है; सो तुम मुझे एक दफे देहरासर ले चल कि मैं श्री जिनेन्द्र प्रमुके दर्शन कर लूं। श्री मंदिग्जी पासमें ही था । मंदिरजीमें एक व्यासन थी। वह बलिष्ठ शरीरकी थी। वह अपनी गोदमें विनलीबाईको मंदिरजी ले गई। साथमें दोनों बहनें गई। वहां नहनोंने भगवानके सामने बिठाया। बहुत ही भक्तिसे प्रभुकी शांत छविको निरखकर मन ही मन स्तुति पढ़ झुक गई और वहीं प्रतिज्ञा ले ली कि अबसे आज रातभर मुझे जलपानी आदिका त्याग है जो कुछ वस्त्र व शय्या आदि मेरे पास है उसके सिवाय और परिग्रहका भी त्याग है। ..! घर आकर विजलीबाई शांतिसे शय्यापर लेट गई । इस समय सर्वको निश्चय हो गया कि अब बाईके प्राणान्तका अवसर है।
और भी कुटुम्बीनन आ पहुँचे । नवलचंद तो सो गया, पर माणिकचंदको नींद नहीं आई। यह पड़े २ रोने लगा। उधर साह हीराचंदनीका भी जी घबड़ाया और थोड़ी देरके लिये एकान्तमें जाकर खूब रोए । फिर वे मन वांभकर शय्याके पास आए और
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