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अध्याय तीसरा |
प्रतिमाओंके सुरक्षित होनेपर मंदिरकी भीतें भस्म हो जानेपर भी श्रावकोंने संतोष माना और साह हीराचंद के साहसकी सराहना की, जिसने अग्रगामी होकर अपना खयाल छोड़ इस उपसर्गको निवारण किया । उस दिन से साहजीने धीरे २ अपना मकान तो ठीक किया ही, पर श्री मंदिरजी के जीर्णोद्धारकी बहुत बड़ी फिक्र की । चार वर्ष पीछे सं० १८९७ में विजलीबाईको दूसरी सन्ततिका लाभ हुआ। इस समय जब विजलीबाईको गर्भ रहा तब साह हीराचंद के चितमें यह उमंग उठी कि अब तो शायद पुत्रकी प्राप्ति अवश्य होगी। परंतु इस वक्त भी साहजीको १ कन्यारत्नकी प्राप्ति ही हुई । साहजीने इसका नाम मंच्छाकोर (मंछाकुमरी ) रक्खा और पूर्वोपार्जित कर्म के उदयसे जो लाभ हुआ उसीमें सन्तोष किया ।
बिजलीबाई सन्तानकी रक्षा करने में बहुत चतुर थी। योग्य खानपान करती थी ताकि उसके दूध में कोई विजलीबाईकी विकार नहीं हो क्योंकि जो माता ऐसी वैसी संतान रक्षा । चीजें खाकर शरीरको विकारी व रोग ग्रसित कर लेती है उसके विकारी दूधसे बच्चे के शरीर में बहुत से रोग हो जाते हैं। बहुतसे बच्चे तो माताकी गोद में ही कालके ग्रास हो जाते हैं। बिजलीबाई की सावधानीसे न हेमकुंमरीके ना मंच्छा कोई भारी रोग हुआ जिससे माता पिताको चिन्ता हो । मंच्छा जब माताका दूध पान करती थी तब हेमकुमरी चार वर्षकी थी । इसका शरीर बहुत सुन्दर व गठा हुआ था । चिहरा गोल था, चंचलनेत्र थे व मुख हंसता हुआ प्रफुल्लित कमलके समान था । जो कोई देखता उसका दिल उमङ्ग आता और इसे गोदमें लेकर प्यार करता था ।
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