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________________ ९४] अध्याय तीसरा । भी उसको धर्मकी बातें सुनाते रहते थे। निदान णमोकार मंत्र सुनते २ उसके प्राण पखेरू शरीरको त्यागकर अन्य गतिमें चलदिये । सेठ गुमानजी और उनके पुत्रोंको खासकर हीराचन्दनीको इस वियोगसे बहुत कष्ट हुआ। गुमानजीका जैसा प्रेम अपनी अर्धागिणी से था उसीके प्रमाणमें उतना ही उन्हें वियोगका दुःख भी हुआ । वास्तवमें इस संसारके पदार्थ सर्व क्षणिक अवस्था वाले हैं। जो किसी अवस्थाके होते हुए हर्ष करेगा उसेही उस अवस्थाको बिगड़ जाते देखकर कष्ट व शोक होगा । जो ज्ञानी व निर्मोही साधुजन होने हैं वे किसीसे मोह नहीं करते अतएव उनको सांसारिक हर्ष और विषाद नहीं होता । यद्यपि गुमानजी शास्त्रके जाननेवाले थे पर विशेष वैराग्यवान न थे । इनको अपनी पत्नीके वियोगका ऐसा दुःख हुआ कि यह भी थोड़े ही दिनोंमें कुछ अस्वस्थ हो गए । और बहुत बीमारी न पाते हुए एक दिन बहुत स्वस्थतासे णमोकार मंत्र जपते हुए तथा श्री अरहंत की प्रतिमाका ध्यान करते हुए शरीरको त्यागकर स्वर्ग पधारे। विवाहके थोडे ही दिनोंके पीछे हीराचन्दको अपने माता पिताका वियोग सहना पडा, परन्तु हीराचन्द. मातापिताके वियोग शास्त्रस्वाध्याय करतेथे इससे अपने मनको का दुःख समझाकर अपने गृहकर्तव्यमें लग गए । शाह गुमानजी हीराचन्दका विवाह तो कर पाये थे परन्तु वखतचन्दका विवाह नहीं कर सकेथे । साह हीराचन्द बड़े बुद्धिमान थे और अपने छोटे भाईसे बहुत प्रेम रखते थे। कुछ काल पीछे हीराचन्दने वखतचन्दकी लग्न करके अपने कर्तव्यको पूरा किया और दोनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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