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जिनवाणी-विशेषाङ्क नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा से रहित केवल शरीर से भी नहीं हो सकता। इसलिये जीवन के बाह्य एवं आभ्यन्तर इन दोनों रूपों के समान सम्यग्दर्शन के भी बाह्य एवं आभ्यन्तर रूप हैं। . आभ्यन्तर रूप सम्यग्दर्शन की आत्मा है और बाह्य रूप सम्यग्दर्शन का अंग-उपांग युक्त शरीर है। सम्यग्दर्शन के इन दोनों रूपों की साधक-जीवन में नितान्त आवश्यकता है, अनिवार्यता है। सम्यग्दर्शन के आभ्यन्तर रूप के अभाव में
आत्म-शुद्धि कदापि नहीं हो सकती है तथा बाह्य रूप के बिना मनुष्य का व्यवहार भी विशुद्ध नहीं हो पाता है। यों देखा जाए तो सम्यग्दर्शन आत्मिक-विशुद्धि, आचरण-निर्मलता एवं ज्ञान-शुद्धि के महामार्ग पर अग्रसर होने का प्रथम सोपान है। इसी को सम्यग्दर्शन कहा जाता है और इस. का अपर नाम 'सम्यक्त्व' भी है। सम्यक्त्व का अभिप्रेत अभिप्राय है सम्यक् मार्ग को प्राप्त करना । जो जीव इधर-उधर भटकना छोड़कर आत्म-विकास के सही मार्ग को प्राप्त कर लेता है, आत्म-शुद्धि का प्रशस्त पथ प्राप्त कर लेता है. उसी को सम्यग्दष्टि, सम्यग्दर्शी अथवा सम्यक्त्वी कहा जाता है। सन्मार्ग को प्राप्त करने का अर्थ है-अन्तर्मन में पूर्णरूपेण सम्यक् श्रद्धा का सद्भाव होना कि यही मार्ग कल्याण की ओर ले जाने वाला है। तब उसी मार्ग पर चलने की अभिरुचि एवं संप्रतीति होती है, साथ ही विपरीत मार्ग छोड़ दिया जाता है। यही कारण है कि भव्य जीव के अन्तरंग एवं बहिरंग इन दोनों की विशुद्धता के लिये निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन की नितान्त रूप से आवश्यकता एवं अनिवार्यता रही है। व्यवहार सम्यग्दर्शन : स्वरूप एवं लक्षण ___व्यवहार-सम्यग्दर्शन के बहुविध लक्षण हैं, किन्तु गहराई से दृष्टिपात किया जाय तो दो लक्षण मुख्य हैं। वे दो लक्षण क्रमशः इस प्रकार से प्रतिपादित हैं-प्रथम लक्षण तत्त्वश्रद्धा है और द्वितीय लक्षण देव-गुरु और धर्म पर दृढ़ श्रद्धा है। इन दोनों लक्षणों के प्रकाश में सम्यग्दर्शन का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। सर्वाधिक प्राचीन लक्षण इस रूप में प्राप्त होता है-तथा स्वरूप भावों के सद्भाव के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धान है उसे 'सम्यक्त्व' कहते हैं। अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित जीव, अजीव आदि तत्त्व रूप अर्थों का श्रद्धान 'सम्यग्दर्शन' है। इन दोनों लक्षणों में शब्दशः समानता नहीं हो, परन्तु दोनों का भावार्थ एक ही है। उक्त लक्षणद्वय को केन्द्र में रखकर, अन्य लक्षणों पर विचार करना, अप्रासंगिक नहीं होगा। कतिपय लक्षण इस रूप में संप्रस्तुत हैं, जिनसे प्रस्तावित विषय स्पष्ट होगा। तत्त्वभूत पदार्थों का श्रद्धान अथवा तत्त्व से अर्थों का श्रद्धान, तत्त्वार्थ श्रद्धान है। वही सम्यग्दर्शन है। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये सात तत्त्व हैं, उन का श्रद्धान करना 'सम्यग्दर्शन' है। जिनवरों द्वारा प्ररूपित जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना व्यवहार से सम्यक्त्व है।५° उन भावों अर्थात् जीव-अजीव आदि नौ पदार्थों पर मिथ्या दर्शन के उदय से प्राप्त होने वाले अश्रद्धान के अभाव-स्वभाव वाला जो भावान्तर श्रद्धान है, वह सम्यक्त्व है।११ वीतराग देव द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर रुचि होना सम्यग्दर्शन है। र व्यवहार नय से जीव, अजीव आदि इन नौ पदार्थों का जैसा इनका परमार्थ स्वरूप है, वैसा ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।१२ सम्यग्दर्शन का जो व्यावहारिक
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