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जिनवाणी-विशेषाङ्क पूरा अन्धकारमय है।
एक व्यक्ति ने बड़ी बारीकी से त्याग-प्रत्याख्यान किये, सौगन्ध-शपथ लिये साधु या श्रावक के व्रतों का पालन किया, किन्तु सम्यक्त्व के बिना व्रत जरा भी सध नहीं पाते ।एक व्यक्ति ने देशऊन दशपूर्वो का अध्ययन किया, ज्ञानी कहलाने लगा, पर वास्तव में सम्यक्त्व के बिना अज्ञानी ही है क्योंकि वह व्रतविषयक विचार से सर्वथा शून्य है। (भिक्षुग्रन्थरत्नाकर, समकित री ढाला ३.३-७) श्रीमत् जयाचार्य द्वारा रचित आराधना का एक पद, जो प्रस्तुत विषय पर बड़ा सुन्दर और विशद प्रकाश डालता है, यहा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वह इस प्रकार है
'जे समकित बिन म्हे, चारित्र नी किरिया रे।
बार अनन्त करी, पिण काज न सरिया रे ।' सम्यक्त्व प्राप्त किये बगैर मैंने अनन्त बार चारित्र की क्रिया की, पर उससे मेरा कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ। अर्थात् आत्मकल्याण नहीं सध पाया।
मिथ्यात्वदशा में की जाने वाली त्याग-तप आदि क्रियाओं को जब अर्हदाज्ञा में मानने का आग्रह रखा जाता है तो फिर वैसी ही क्रियाएं यदि किसी भी अभव्य-जन द्वारा की जाये तो उन्हें भी भगवदाज्ञा में कहा जाना चाहिए। मिथ्यात्वी की क्रिया को आज्ञा में मानने वाले ऐसा नहीं करते।
अर्हम् आश्रम, द्रोणांचल वाया गोपालपुरा जिला चुल (राज.)
सम्यग्दर्शन : आत्मजागृति सद्गुरु, सत्संग, शास्त्रश्रवण और योग्य करणी का निमित्त मिलने से |
आत्म-जागृति होती है। • स्व तत्त्व को पा लेने के बाद आत्मा स्वस्थ, शान्त और निर्मल होगी।
सुख और दुःख का अन्तरंग कारण तो हमारे भीतर ही विद्यमान होता है। • आनन्द भौतिक वस्तुओं के राग में नहीं, त्याग में है।
जैन धर्म व्यक्तिपूजक, नाम पूजक या वेषपूजक नहीं, वह गुणपूजक है। जो गुणके बदले नाम और वेष का पूजक हो तो समझना चाहिए कि उसकी धार्मिक दृष्टि सही नहीं है। सम्यग्दर्शन न तो गुरु महाराज के पास से आने वाली चीज है और न भक्ति के द्वारा ली जाने वाली चीज है। सम्यग्दर्शन तो हमारे भीतर है। वह तो भीतर से आवेगा। वह भीतर से जगने वाला है। गुरु तो पर्दा हटाने का काम करते हैं, आवरण हटाने का काम करते हैं। आवरण दूर होने से मिथ्यात्व का रोग गलता है। सम्यग्दर्शन वह आलोक है जो आत्मा में व्याप्त मित्यात्व अंधकार को नष्ट कर देता है और आत्मा को मुक्ति की सही दिशा और सही राह दिखलाता है।
-आचार्य श्री हस्ती
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