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जिनवाणी- विशेषाङ्क
सत्यगवेषी, मुमुक्षु पुरुष सम्यक् ज्ञान के बिना चारित्राराधना का सधना स्वीकार करेगा ?
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केवल संवर रहित अकाम निर्जरा की दृष्टि से इसे देशाराधना कहा जाए तो इसी पाठ के चौथे भंग पर सूक्ष्मता से चिन्तन करें, जिसमें न श्रुत है, न शील है, उसे सर्व विराधक कहा गया है । ( भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक १० ) क्या उसमें संवर रहित अकाम निर्जरा का भी सर्वत्र अभाव है ? क्या चौबीस दण्डकों के जीवों में किसी भी दण्डक का जीव ऐसा है, जिसमें निर्जरा का सर्वथा अभाव हो ?
कहने का अभिप्राय यह है कि प्रथम भङ्ग की संगति मार्गानुसारी गुणों की दृष्टि से ही संभव है, चारित्राराधना की दृष्टि से कदापि नहीं ।
मिथ्यात्वी की आराधकता, अनाराधकता, देशाराधकता इत्यादि विविध पक्षों पर पूर्ववर्ती जैनाचार्यों ने भी विभिन्न सन्दर्भों में चर्चा की है। जैन जगत् के सुप्रसिद्ध दार्शनिक, जैनन्यायपरम्परा के अन्तिम प्रौढ़ मनीषी उपाध्याय यशोविजय जी ने 'उपदेश - रहस्य' में इस प्रसङ्ग पर विवेचन किया है
भन्नइ दव्वाराहणमेयं, सुत्तं पडुच्च दट्टव्वं ।
सो पण दव्वपयत्यो, दुविहो इह सुत्तणीईए | उपदेशरहस्य, गाथा १६ भण्यतेऽत्रोत्तरं दीयते - एतच्छीलवतो अश्रुतवतो देशाराधकत्वप्रतिपादकं व्याख्या- प्रज्ञप्ति-सूत्रं द्रव्याराधनां बाह्यतपश्चरणाद्यनुष्ठानपालनाम्, प्रतीत्य- आश्रित्य द्रष्टव्यं - निर्ष्णेयम्, समुदयनिष्पन्नस्य पारतन्त्र्य - रूपस्यो भयासाधारण्येऽपि बाह्यक्रियात्वस्योभयसाधारणत्वेन देशत्वानपायात्, न खलु गुडादावपि समुदयनिष्पन्नद्रवत्व-विशेषादिरूपाऽभावेऽप्युभयदशा-साधारण - विवेच्याऽविवेच्य भाववर्जितस्वादविशेष भावमात्रान्मदिरादिदेशत्वं व्याहन्यते ॥
उपर्युक्त विवेचन का आशय यह है- शीलयुक्त अश्रुतवान् को देशाराधक का प्रतिपादक सूत्र जो व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित है वह बाह्य तपश्चरणादि अनुष्ठान की पालना को लक्षित करके कहा गया है, ऐसा समझना चाहिए । यद्यपि सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप रत्नत्रय से निष्पन्न भावचारित्र दोनों में तुल्य नहीं है अर्थात् भावचारित्री में है, पर द्रव्यचारित्री में नहीं है, इसलिये सम्यग्दर्शन के अभाव में शीलवान् में केवल द्रव्यदृष्टि से देशाराधकता अभिहित की जा सकती है। अर्थात् बाह्य क्रियानुष्ठान दोनों में समान तुल्य होने से असम्यक्त्वी में देशाराधकता अभि हो सकती है, जैसे गुड़ आदि में मदिरा की भांति समुदाय निष्पन्न अनेक पदार्थमिश्रणजनित द्रवत्व, मादकत्व आदि न होते हुए भी बहुत हल्का सा मद्यवत् स्वाद विशेष अनुभूत होता है जिसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । इस दृष्टि से कहने भर में उसमें अंशतः मद्य का अस्तित्व मान लिया जाता है ।
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वही स्थिति सम्यक्त्वविहीन तप आदि के आचरण में संलग्न मिथ्यात्वी की है। वह वास्तव में आराधक नहीं होता । बाह्य क्रियाओं के यत्किंचित् सादृश्य के कारण वह आनुषंगिक रूप में व्यवहार की भाषा में देशाराधक कहा जाता है 1
निष्कर्ष यह है कि तात्त्विक दृष्टि से मिथ्यात्वी कहीं भी आराधक नहीं माना गया
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