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________________ ६२ ६२............... जिनवाणी-विशेषाङ्क भागशब्दः पूजावचनः, ततश्च महापूज्या इत्यर्थः । लोकविश्रुता इति । तथा वीराः परानीकभेदिनः सुभटा इति । इदमुक्तं भवति पण्डिता अपि, त्यागादिभिर्गुणै लोकपूज्या अपि तथा सुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक्त्वपरिज्ञानविकलाः केचन भवन्तीति दर्शयति-न सम्यगसम्यक् तद्भावोऽसम्यक्त्वं तद् द्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः । तेषां च बालानां यत् किमपि तपोदानाऽध्ययननियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमं तदशुद्धम्-अविशुद्धिकारि, प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावोपहतऽत्त्वात् सनिदानत्वाद्वेति कुवैद्य-चिकित्सावद् विपरीतानुबन्धीति, तच्च तेषां पराक्रान्तं सहफलेन-कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलं सर्वशः इति सर्वाऽपि तक्रिया तपोऽनुष्ठानादिका कर्मबन्धायैवेति ॥२२ ।। साम्प्रतं पण्डितवीठिणोऽधिकृत्याह ये केचन स्वयम्बुद्धास्तीर्थकराद्यास्तच्छिष्टया वा बुद्ध-बोधिता गणधरादयो 'महाभागाः' महापूजाभाजो ‘वीराः' कर्मविदारणसहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गणैर्विराजन्त इति वीराः, तथा सम्यक्त्वदर्शिनः परमार्थतत्त्ववेदिनस्तेषां भगवतां यत् पराक्रान्तम्-तपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तच्छुद्धम्-अवदातं निरूपरोधं सातगौरवशल्यकषायादिदोषाकलङ्कितं कर्मबन्धं प्रति अफलं भवति-तन्निरनुबन्धं निर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः, तथाहि सम्यक्दृष्टीनां सर्वमापे संयमतपःप्रधानमनुष्ठानं भवति, संयमस्य चानास्रवरूपत्वात् तपसश्च निर्जराफलत्वादिति, तथा च पठ्यते 'संयमे अणण्हयफले तवे वोदाणकले इति ।' ॥२३॥ 'जो कुछ एक व्यक्ति धर्म के परमार्थ-सच्चे स्वरूप को नहीं जानते, व्याकरण, शुष्क तर्क आदि के ज्ञान का जिन्हें अहंकार है, जो अपने पाण्डित्य का गर्व करते है वे अबुद्ध हैं—बोध रहित हैं क्योंकि वस्तु के यथार्थ स्वरूप का उन्हें ज्ञान नहीं है। सम्यक्त्व न हो तो मात्र व्याकरण के ज्ञान से तत्त्व-बोध नहीं होता। कहा है शास्त्रों के अवगाहन और विवेचन में तत्पर-संलग्न-कुशल भी व्यक्ति, यदि अबुध-सम्यक् दृष्टिमय बोध से युक्त नहीं है तो वह वस्तु-तत्त्व को नहीं जान पाता। जैसे कड़छी तरह-तरह के रसों का संस्पर्श करती है, किन्तु चिरकाल पर्यन्त ऐसा करते हुए भी रस का स्वाद नहीं जानती। बलवीर्ययुक्त, महापूज्य, लोकविश्रुत, वीर-शत्रु-सैन्य-विजेता, सुभट-योद्धा, पण्डित-दान आदि उत्तम गुणों द्वारा लोक-पूज्य होते हुए भी सम्यक् तत्त्व के परिज्ञान से रहित होते हैं, वे असम्यक्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि हैं। उन मिथ्यादृष्टियों का अज्ञानियों का तप, दान, अध्ययन, यम, नियम आदि विषयक पराक्रम-उद्यम अशुद्ध है, कर्म बन्ध के लिए है। क्योंकि वह मिथ्यादर्शन के भाव से उपहत-दूषित और सनिदान-फलानुबन्ध या फलाकांक्षासहित होता है। कुवैद्य-अयोग्य वैद्य की चिकित्सा से जैसे रोग का नाश नहीं होता, रोग बढ़ता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वियों की तपश्चरण आदि सभी क्रियाएं कर्मबन्ध के लिए होती हैं। जो स्वयं बुद्ध-अपने आप बोध प्राप्त तीर्थंकर आदि, बुद्ध बोधित-गणधर आदि उनके शिष्य, महाभाग-परम श्रद्धास्पद, वीर-कर्म विदारण में सक्षम अथवा ज्ञान आदि गुणों से सुशोभित तथा सम्यक्दी -परमार्थ तत्त्ववेदी हैं, उनका पराक्रम-तप, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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