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मिथ्यात्वी की क्रिया
। आचार्य चन्दनमुनि मिथ्यात्वी की क्रिया को आराधना माना जाय या नहीं, इस बिन्दु को लेकर आचार्य चन्दनमुनि ने प्रमाण-पुरस्सर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मिथ्यात्वी की क्रिया को आराधना की श्रेणी में रखना कथमपि उचित नहीं है। सम्पादक
श्रद्धा जब सम्यक्-सत्यनिष्ठ होती है, तभी ज्ञान एवं चारित्र का सार्थक्य है। जैन दर्शन में केवल वस्तु की जानकारी मात्र ज्ञान शब्द से वाच्य नहीं है। उसकी ज्ञान संज्ञा तब होती है, जब उस जानकारी के साथ सम्यक् श्रद्धान, सत्यपरक विश्वास या सदास्था का योग हो । ऐसा न होने पर उस जानकारी-मूलक ज्ञान की संज्ञा अज्ञान हो जाती है। ध्यान रहे, यहां अज्ञान ज्ञान के अभाव का परिचायक नहीं है, क्योंकि किसी पदार्थ की बाह्य जानकारी तो वह है ही, किन्तु उसके साथ सत्श्रद्धा का सत्य नहीं जुड़ा है, इसलिये आत्महित या आत्म-कल्याण की दृष्टि से वह ज्ञान जरा भी उपयोगी सिद्ध नहीं होता। वह कुत्सित ज्ञान की कोटि में जाता है। अतएव ज्ञान के पूर्व 'अ' निषेध या अभाव-द्योतक नहीं है, कुत्सा-द्योतक है। वैसा ज्ञान कितना ही विस्तृत, विपुल क्यों न हो, उसका सार्थक्य सिद्ध नहीं होता।
आज के युग में भौतिकविज्ञान ने बड़ी उन्नति की है। किन्तु बड़े खेद का विषय है, वैज्ञानिक प्रतिभा का आज विनाशकारी युद्धोपकरणों के आविष्कार और निर्माण में जितना व्यय हो रहा है, उसकी तुलना में बहुत कम लोक-हितकारी निर्माण में व्यय हो पाता है। अमूल्य प्रतिभा के साथ-साथ अरबों की राशि व्यय कर अणुबम जैसे भीषण, प्रलयंकर शस्त्रास्त्र निर्मित हो रहे हैं। बहुत उत्तम है, उनका कहीं, कभी उपयोग न हो।
अणुबम जैसे शस्त्रास्त्रों के आविष्का वैज्ञानिक कोई सामान्य प्रतिभा के धनी नहीं हैं। भौतिक विज्ञान की सूक्ष्मतम गहराइयों तक उनके मस्तिष्क की पहुंच है। किन्तु ऐसी प्रखर प्रतिभा से साध्य, साथ ही साथ विपुल व्ययसाध्य, अनवरत श्रमसाध्य निष्पत्ति यदि विनाश लेकर उपस्थित होती है तो इसमें मानव की क्या महत्ता, बुद्धिमता
और विशेषता है। यह तो अपनी तेज धारदार कुल्हाड़ी को अपने ही हाथों अपने पैरों पर चलाने जैसा है।
यहां जैन-दर्शन सम्मत सम्यक् दर्शन की बात आती है। उक्त विपुल-विशाल ज्ञान के साथ वह नहीं है। यदि सम्यक् दर्शन होता तो आज वह विज्ञान मानव को विनाश के कगार पर नहीं पहुंचाता । वह सुख और शांति के लिये होता।
धर्म और साधना के क्षेत्र में सम्यक् दर्शन आदि चरण है। उसके बिना सब शून्य है। आचार्य उमास्वाति ने सम्यक् दर्शन संपृक्त ज्ञान तथा चारित्र की आराधना को साधना पथ कहा है, जिसकी अंतिम मंजिल मोक्ष है, जहां तक वह पहंचाता है। जैन धर्म में ये तीनों रत्न-त्रय कहे गये हैं। आध्यात्मिक जीवन इन्हीं से दीप्ति, द्युति और आभा प्राप्त करता है। यही वह मार्ग है, जिसका अवलम्बन कर आत्मोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर होते रहने का सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञाता महापुरुषों ने उपदेश, निर्देश व आदेश
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