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________________ ३६ जिनवाणी-विशेषाङ्क कहता। क्रियावाद में भी इसके संयमवान् साधु-साध्वी, निर्जीव एवं निर्दोष आहार-वस्त्र-स्थानादि भिक्षा से प्राप्त करते हैं। यदि उनके लिए बनाया जाये या बनते हुए आहार में उनके लिए कुछ बढ़ाया जाये, अथवा देने के बाद में बनाना पड़े, तो ऐसा भोजन पानी भी वे नहीं लेते और भूखे-प्यासे ही रह जाते हैं। अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करने के लिए वे नंगे पैर चलते हैं, खुले मुँह नहीं बोलते, अन्धेरे में पूँज कर चलते हैं, बिना प्रमार्जन किये करवट भी नहीं बदलते, खाज भी नहीं खुजालते। जैन निम्रन्थों जैसा पूर्ण अहिंसक क्रियावाद अन्यत्र कहां मिलेगा? जैन गृहस्थ इस प्रकार का उच्च चारित्र नहीं पालता। वह स्थावरकाय के जीवों का आरम्भ करता है, फिर भी उसका दर्शन निर्दोष रहता है। वह कहता है कि अहिंसा धर्म यथार्थ है, सत्य-अचौर्यादि धर्म भी यथार्थ हैं। किन्तु मैं कमजोर हूँ, मुझ में इतनी योग्यता नहीं कि मैं इनका पूर्णरूप से पालन कर सकूँ। सुश्रावक शेष आरम्भ-समारम्भ को त्यागने का मनोरथ भी करता है। इसलिए उसका भी दर्शन निर्दोष है। एक निर्धन व्यक्ति, दूसरे धनाढ्य का कर्जदार है। जब सेठ अपना रुपया मांगता है, तब निर्धन कहे कि 'सेठ साहब ! आपका रुपया देना है। मैं देनदार हूँ। अवश्य दूंगा। आज मेरे पास नहीं है। मुझे आपके रुपयों की चिन्ता है। मैं हाथ जोड़ कर दूंगा।' इस प्रकार वास्तविक उत्तर पाकर सेठ संतुष्ट हो जाता है। वह सोचता है कि-'यह ठीक कहता है, अभी इसके पास पैसा नहीं है, आमदनी भी कम है, कहाँ से ला कर देवे। इसकी नियत ठीक है। जब इसके पास पैसा आवेगा, तब दे देगा।' इसी प्रकार दार्शनिक सत्यता के कारण जैन गृहस्थ का दृष्टिकोण सत्य है और क्रियावाद में भी कुछ गति है तथा भविष्य में पूर्ण क्रियावाद अपनाने की भावना रखता यदि कहा जाय कि-'हिंसा तो सर्वत्र है। उठने बैठने चलने सोने एवं हल-चलनादि में भी हिंसा होती रहती है, फिर क्रियावाद निर्दोष कैसे माना जाय?' समाधान है कि-'शरीर के कारण हलन-चलनादि होता है, इसमें किसी जीव की हिंसा भी हो जाती है। किन्तु यतनापूर्वक प्रवृत्ति हो, तो वह अहिंसक है। क्योंकि वह पूर्ण अहिंसा पालन करने की रुचि वाला है। उसका प्रयत्न भी यही है। सावधानी रखते हुए भी अनजानपने से या अनायास किसी जीव की हिंसा हो जाय, तो वह विवश है और इसका प्रतिक्रमण करता है। शास्त्रकार ने विधि तो सर्वथा निर्दोष ही बताई है। जीवन- निर्वाह के लिए भोजन-पानी प्राप्त करने के लिए केवल भिक्षाचरी ही बतलाई और वह भी कितनी निर्दोष कि जिसकी समानता कोई भी दर्शन नहीं कर सकता। यह जैन धर्म की निर्दोष दार्शनिकता है। ___ सबसे पहले दृष्टि शुद्ध होना आवश्यक है। दृष्टि शुद्ध होने पर ही खरे-खोटे और असल-नकल की परख होती है। आँख से ठीक दिखाई नहीं दे, तो गेहूं, दाल और चावल आदि की सफाई भी ठीक नहीं हो सकती। उनमें कंकर रह जाते हैं। चावलों में सफेद कंकर उतने ही बड़े हो, तो चुनना कठिन हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा का दर्शन गुण निर्मल नहीं हो, तो कई प्रकार की मिथ्या बातें, धर्म के आवरण में आ कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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