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सम्यग्दर्शन : परिशिष्ट
४३७ सम्यक्त्व पूर्वक ही दान आदि क्रियाएँ शुद्ध होती हैं। उन्हीं क्रियाओं का फल मोक्ष कहा गया है जो सम्यक्त्व पूर्वक होती हैं।
मिथ्यात्वं परमो रोगो, मिथ्यात्वं परमं तपः ।
मिथ्यात्वं परमः शत्रुर्मिथ्यात्वं परमं विषम् ॥१२ ।। मिथ्यात्व परम रोग है, मिथ्यात्व घना अंधकार है, मिथ्यात्व परम शत्रु है और मिथ्यात्व परम विष है।
अदेवे देवबुद्धिर्या, गरुधीरगरौ च या।
अधर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ।।१३ ॥ अदेव को देव मानना तथा देव को अदेव मानना, अगुरु को गुरु समझना तथा गुरु को अगुरु समझना, अधर्म में धर्मबुद्धि होना तथा धर्म में अधर्म बुद्धि होना मिथ्यात्व है।
मिथ्यात्वपंकमलिनो, जीवो विपरीतदर्शनो भवति।
श्रद्धत्ते न च धर्मं मधुरमपि रसं यथा ज्वरितः ॥१४॥ मिथ्यात्व रूपी कीचड़ में सना हुआ जीव विपरीत दृष्टि वाला होता है। वह धर्म पर उसी प्रकार श्रद्धा नहीं करता, जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति मीठी दवा पर भी विश्वास नहीं करता।
पटोत्पत्तिमूलं यथा तन्तुवृन्दं घटोत्पत्तिमूलं यथा मृत्समूहः ।
तृणोत्पत्तिमूलं यथा तस्य बीजं, तथा कर्ममूलं च मिथ्यात्वमुक्तम् ।।१५ ।। जिस प्रकार कपड़े की उत्पत्ति का मूल कारण धागे (रेशे) होते हैं, घड़े की उत्पत्ति का मूल कारण मिट्टी समूह होता है, वनस्पति की उत्पत्ति का कारण बीज होता है उसी प्रकार कर्मों का मूल कारण मिथ्यात्व को कहा गया है। ..
जन्मन्येकत्र दुःखाय, रोगो ध्वान्तं रिपुर्विषम्।
अपि जन्मसहस्रेषु, मिथ्यात्वमचिकित्सितम् ॥१६॥ रोग, अंधकार, शत्रु एवं विष तो एक जन्म में दुःख देने वाले होते हैं, किन्तु मिथ्यात्व की चिकित्सा नहीं की गई तो वह हजारों जन्मों तक दुःख प्रदान करता है।
शस्यानि वोषरे क्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन।
न व्रतानि प्ररोहंति, जीवे मिथ्यात्ववासिते ॥१७॥ ऊपर धरती में फेंके गए बीज कभी उगते नहीं हैं इसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव में व्रतादि आगे नहीं बढ़ते हैं।
शत्रुभिर्निहितं शस्त्रं, शरीरे जगति नृणाम् ।
यथा व्यथां करोत्येव, तथा मिथ्यात्वमात्मनः ॥१८॥ जिस प्रकार शत्रुओं के द्वारा छोड़ा गया शस्त्र संसार में मनुष्यों के शरीर को व्यथित करता ही है उसी प्रकार मिथ्यात्व आत्मा को व्यथित करता है।
मिथ्यात्वशल्यमुन्मूल्य, स्वात्मानं निर्मलीकुरू।
यथाऽजस्रं सुसिदुररजसा भुवि दर्पणः ॥१९॥ मिथ्यात्व शल्य को जड़ से हटाकर अपनी आत्मा को निर्मल बनाओ। जिस प्रकार संसार में निरन्तर सिंदूरकण के प्रयोग से दर्पण को निर्मल कर दिया जाता है।
स्वाध्यायेन गुरोर्भक्त्या, दीक्षया तपसा तथा।
येन केनोद्यमेनैव, मिथ्यात्वशल्यमद्धरेत् ॥२०॥ स्वाध्याय से, गुरु की भक्ति से, दीक्षा से तथा तप से, जिस किसी भी उद्यम से मिथ्यात्व रूपी कांटे को बाहर निकाल देना चाहिये।
मद्यमोहाद्यथा जीवो न जानाति हिताहितम्।
धर्माधर्मों न जानाति तथा मिथ्यात्वमोहितः ॥२१॥ मद्यपान से मोहित व्यक्ति जिस प्रकार हिताहित को नहीं जानता उसी प्रकार मिथ्यात्व से मोहित जीव धर्माधर्म के भान से सर्वथा शून्य होता है।
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