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सम्यग्दर्शन : परिशिष्ट
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सम्यक्त्व से रहित जीव भलीभांति उग्र तप करते हुए भी हजार-कोटि वर्षों में बोधिलाभ को प्राप्त नहीं करते ।
सम्मदंसणलंभो वरं खुतेलोक्कलंभादो । - भगवती आराधना, ७४२ सम्यग्दर्शन का प्राप्त होना त्रैलोक्य की प्राप्ति से भी श्रेष्ठ है 1 सद्दर्शनं महारत्नं विश्वलोकैक भूषणम् ।
मुक्तिपर्यन्तकल्याणदानदक्षं प्रकीर्तितम् ॥ ज्ञानार्णव, ६.५६
सम्यग्दर्शन महारत्न समस्त संसार का एक मात्र भूषण है । यह मुक्ति पर्यन्त कल्याण प्रदान करने में दक्ष माना गया है ।
णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदिगिछा अमूढदिट्ठीय ।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ ॥ चारित्रपाहुड, ७
सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं - नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ।
णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं । - बोधपाहुड, १४ निर्ग्रन्थ और ज्ञानमय रूप जिनमार्ग में दर्शन कहा गया है। मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ ।
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जम्ममरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो || - मोक्षपाहुड, ९६
जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म, जरा एवं मरण से प्रचुर और हजारों दुःखो से व्याप्त इस संसार में सुखरहित होकर भ्रमण करता है ।
मिच्छे खलु ओदइओ बिदिए खलु पारिणामिओ भावो ।
मिस्से खओवसमिओ अविरदसम्मम्मि तिण्णेव ॥ - गोम्मटसार, जीवकाण्ड,
मिथ्यात्व गुणस्थान में औदयिक भाव, सास्वादन गुणस्थान में पारिणामिक भाव, मिश्रगुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तीनों भाव होते हैं
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अप्पाणमयाणतो, अणप्पयं चेव सो अयाणंतो ।
कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ॥ - समयसार, २०१-२०२
जो आत्मा को नहीं जानता वह अनात्मा को भी नहीं जानता । जीव एवं अजीव अर्थात् आत्मा एवं अनात्मा को नहीं जानता हुआ कोई सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? सम्मद्दंसणसुद्धं जाव लभदे हि ताव सुही ।
सम्पद्दंसणसुद्धं जाव ण लभदे हि ताव दुही ॥ रयणसार, ५८
जीव जब तक शुद्ध सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है तब तक सुखी रहता है एवं जब तक वह शुद्ध सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं करता है तब तक दुःखी रहता है ।
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