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________________ सम्यग्दर्शन : परिशिष्ट ४३१ जैसे-जैसे जल शुद्ध होता है वैसे-वैसे उसमें नेत्र रूपादि को दिखलाता है । इसी प्रकार जैसे-जैसे तत्त्वरुचि होती है वैसे-वैसे तत्त्वज्ञान होता है । (४०) कारणकज्जविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुप्पन्नंपि तहा हेऊ नाणस्स सम्मत्तं ॥ - आवश्यकनिर्युक्ति, ११७० दीपक एवं प्रकाश का जन्म एक साथ होने पर भी उनमें कारण- कार्य विभाग माना जाता है। दीपक कारण है एवं प्रकाश कार्य है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के एक साथ उत्पन्न होने पर भी सम्यग्ज्ञान का कारण सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) हैं । Jain Education International (४१) भद्वेण चरित्ताओ, सुट्ठयरं दंसणं गहेयव्वं । सिज्झति चरणरहियाँ, दंसणरहिया न सिज्झति ॥ - आवश्यक निर्युक्ति, ११७३ चारित्र से भ्रष्ट के द्वारा भी सम्यग्दर्शन ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि चारित्र से रहित सिद्ध हो जाते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित सिद्ध नहीं होते हैं । (४२) एक्को मे सासओ अप्पा, नाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ - महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, १६ ज्ञान-दर्शन के लक्षण वाली एक शाश्वत आत्मा ही मेरी अपनी है। शेष समस्त बाह्य पदार्थ संयोग लक्षण वाले हैं, अर्थात् संयोग सम्बन्ध से प्राप्त हुए (४३) सम्मदिट्ठी सया अमूढे । - दशवैकालिक, १०.७ सम्यग्दृष्टि सदा अमूढ रहता है । हैं I For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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