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सम्यग्दर्शन : परिशिष्ट
........................................२९ वही सत्य एवं निश्शंक है जो जिनेन्द्रों के द्वारा कहा गया है। (२३) सड्डी आणाए मेहावी।-१.३.४ (वीतराग की) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है।
(२४), जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा। -आचारांग १.६.३
जिस प्रकार भगवान् के द्वारा फरमाया गया है उसको जानकर पूर्णरूपेण सम्यक्त्व के अभिमुख व्यवहार करे।
(२५) सोच्चा य धम्मं अरिहंतभासियं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सद्दहमाणा य जणा अणाऊ इंदा देवाति य आगमिस्संति ॥
-सूत्रकृतांग १.६.२९ अरिहंतदेव द्वारा भाषित युक्तिसंगत शुद्ध अर्थ और पद वाले इस धर्म को सुनकर जो जीव इसमें श्रद्धान करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा वे इन्द्र के समान देवताओं के अधिपति होते हैं।
(२६) जे याबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो।
असुद्ध तेसिं परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो॥ जे य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो।
सुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो।। -सूत्रकृतांग १.८.२२-२३ जो पुरुष अबुद्ध (धर्म के रहस्य को नहीं जानते) हैं, किन्तु जगत् में पूजनीय माने जाते हैं और शत्रु सेना को जीतने वाले होने से वीर कहलाते हैं वे यदि सम्यग्दर्शन से रहित हैं तो उनका समस्त पराक्रम अशुद्ध है और वह कर्मबन्धन रूप फल वाला होता
इसके विपरीत जो वस्तु तत्त्व को जानने वाले, पूजनीय, कर्म का विदारण करने में वीर तथा सम्यग्दृष्टि हैं, उनका तपादि अनुष्ठान शुद्ध तथा कर्म-नाश के लिए होता है।
(२७) जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परिआयट्ठाणमुत्तमं ।
__तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरिए संजए ।। -दशवकालिकसूत्र, ८.६१ जिस श्रद्धा से संसार त्याग कर उत्तम प्रव्रज्या प्राप्त की है उसी श्रद्धा और आचार्यसम्मत गुणों का विधिपूर्वक पालन करना चाहिए।
(२८) खवंति अप्पाणममोहदंसिओ, तवेरया संजम-अज्जवगुणे। धुणन्ति पावाइं पुरे कडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥
__-दशवैकालिक, ६.६८ अमोहदी (सम्यग्दर्शी या सम्यग्दृष्टि) जीव शरीर एवं कषाय-आत्मा को क्षीण करते हैं। तप में रमण करने वाले, संयम और आर्जव गुण युक्त वे जीव पूर्वकृत पापों को नष्ट करते हैं तथा नये पापों का बन्धन नहीं करते हैं। (२९) विसेसिया सम्मदिहिस्स मई मइनाणं, मिच्छादिहिस्स मई मइअण्णाणं ।
-नन्दीसूत्र सूत्र २५ विशेषतः सम्यग्दृष्टि की मति मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि की मति मतिअज्ञान है। __ (३०) विसेसियं सुयं-सम्मदिहिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छादिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं।
-नन्दीसूत्र, सूत्र २५
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