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________________ ४१८ जिनवाणी- विशेषाङ्क में ही है, प्रार्थना रूप में नहीं । भेदविज्ञान और उसकी प्रतीति होने पर कि जो धर्म की सबसे पहली आवश्यकता है, आत्मा की अनन्त शक्ति का भान हो जाता है, फिर . वह किसी से क्यों कुछ मांगेगा अन्य धर्मों वाले जो संसार के कर्ता-हर्ता ईश्वर जैसी शक्ति में विश्वास करते हैं, वे उस शक्ति से प्रार्थना भी करते हैं, परन्तु जैन धर्म के अनुसार तो ऐसी कोई शक्ति ही नहीं है जो कुछ दे सके। हमारी आत्मा में ही इतनी शक्ति है कि हम उसे जगाकर अपने ही श्रम से परमात्मा बन सकते हैं । ईश्वरवादी धर्मों का मार्ग भक्ति का है, समर्पण का है कि वे अपने को नगण्य मानकर सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ दें, परन्तु जैन धर्म का मार्ग ठीक इसके विपरीत है । वह पुरुषार्थ का मार्ग है, वह कहता है कि कोई हाथ नहीं जो तुम्हें ऊँचा उठा सके, तुम्हें अपने ही पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ना पड़ेगा। जैसा करोगे वैसे फल भी भोगोगे, तुम्हारे पापों को कोई माफ नहीं कर सकता। उस मार्ग में ईश्वरवादियों की सी भक्ति और प्रार्थना का कोई स्थान नहीं है । इस प्रकार जैन तीर्थंकरों ने तो ईश्वर कर्तृत्व के विरुद्ध क्रांति की थी, परन्तु उनके अनुयायियों ने कर्तृत्व उन तीर्थंकरों में ही थोप दिया। आचार्यों द्वारा मोक्ष के लिए प्रार्थना करने का समर्थन कर दिये जाने से यह विकृति पैदा हो गई कि उन्होंने यह सोचकर कि जब भगवान हमें मोक्ष दे सकते हैं तो हमारी सांसारिक कामनाएं पूरी क्यों नहीं कर सकते, वे उनसे प्रार्थनायें करके तरह-तरह की मांगें करने लगे, पाप की माफी मांगने लगे इस विचार के साथ कि ईमानदारी का जीवन न होने पर भी केवल भक्ति से ही उनके पाप माफ हो जायेंगे। अधिकांश हिन्दी के पूजा पाठ में यही लेने-देने का भाव भरा हुआ है । उदाहरण के लिए - पूजा के अन्त में प्रतिदिन प्रार्थना की जाती है 'सुख देना दुःख मेटना, यही तुम्हारी बान, मोहि गरीब की बीनती सुन लीजो भगवान' । आलोचना • पाठ में प्रार्थना की गई है 'द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो, अंजन से किये अकामी, दुःख मेटो अन्तर्यामी ।' इसी प्रकार द्यानतरायजी ने कहा है- 'पार्श्वनाथ को तू भले पुत्र कीने, महासंकटों से निकाले विधाता, सबै संपदा सर्व को तेहि दाता ।' एक प्रसिद्ध कवि वृन्दावनजी अपनी संकटहरन स्तुति में कहते हैं 'हो दीन बन्धु श्रीपति करुणानिधानजी, अब मेरी व्यथा क्यों न हरो, बार क्या लगी । मालिक हो दो जहान के जिनराज आप ही, एबो हुनर हमारा कुछ तुमसे छुपा नहीं। बैजान में गुनाह मुझसे बन गया सही, कंकरी के चोर को कटार मारिये नहीं।' इसी प्रकार एक अन्य प्रार्थना हैं, 'नाथ मोहि जैसे बने वैसे तारो, मोरी करनी कछु न विचारो करनी को सब कुछ मानने वाले जैन धर्म से इसकी क्या संगति है ? 1 प्रचलित अष्ट द्रव्य पूजा जैन धर्म सम्मत नहीं जैसा कि पहले कहा गया है कि अरहंतों की उपासना का उद्देश्य उनके गुणों के चिंतन द्वारा अपनी आत्म-शक्ति को जगाकर कषाय - मुक्ति के लिए प्रेरणा लेना है 1 प्रतिमा दर्शन का भी यही उद्देश्य है । जैन संदेश दि. ११.९.८० में पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने भी लिखा है 'जो जिसको पूजता है यदि वह उसके गुणों को नहीं जानता तो उसकी भक्ति यथार्थ नहीं है, न पूजा ही यथार्थ है, इसके बिना दर्शन व पूजन केवल अंधभक्ति है, उनका धार्मिक दृष्टि से कोई मूल्य नहीं है । अस्तु यही एक कसौटी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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