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________________ सम्यग्दर्शन : विविध ४०३ तो पूछो। वो बिस्तर-बोरियां बांधे बैठा है कि कब ट्रेन मिल जाये और वह कहीं और चल पड़े । कभी-कभी राह से चलते भिखमंगे को देखकर भी धनपति के मन में ईर्ष्या आ जाती है। कभी-कभी सम्राटों के मन में ईर्ष्या आ जाती है। क्योंकि जिस मस्ती से भिखारी चल सकते हैं उस मस्ती में सम्राट् तो नहीं चल सकते । बोझ भारी है, चिन्ता बहुत है। रात सो भी नहीं सकते। कौन सम्राट् सो सकता है भिखारी की तरह । राह के किनारे की तो बात दूर, सुन्दरतम सुविधापूर्ण कक्षों में भी, आरामदायक बिस्तरों पर भी नींद नहीं आती । चिन्ताएं इतनी हैं, मन ऊहापोह में लगा रहता है और भिखारी राह के किनारे, अखबार को बिछाकर ही सो जाता है और गुर्राटे लेने लगता है कभी-कभी सम्राटों के मन में भी ईर्ष्या उठती है कि ऐसा स्वास्थ्य, ऐसी निश्चितता, ऐसी शांति, ऐसे विश्राम की दशा काश हमारी भी होती । भिखमंगा भी रोज महल के पास से निकलता है, सोचता है, काश, हमारे पास ऐसा महल होता । 1 आकांक्षा का अर्थ है - तुम जहां हो वहां राजी नहीं । जो जहां है वहां राजी नहीं । जीवन का स्वप्न कहीं और पूरा होता दिखाई पड़ता है । किन्तु वहां जो है, उसका भी जीवन का स्वप्न पूरा नहीं हो रहा है। यहां भिखमंगे तो पराजित हैं ही, यहां सिकंदर भी पराजित । यहां भिखमंगे तो खाली हाथ हैं ही, यहां सिकंदर भी खाली हाथ है । जिस दिन तुम्हें आकांक्षा की यह व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है, उसी दिन निष्कांक्षा पैदा होती है, निष्काम भाव पैदा होता है । महावीर कहते हैं, किसी भी तरह के लाभ की आकांक्षा, फिर वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो, संसार में लौटा लायेगा, सम्यक् दृष्टि पैदा न होगी । निष्कांक्षा कैसे पैदा हो ? आकांक्षा को समझने से, आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। जैसे कोई आदमी रेत से तेल निचोड़ रहा हो, और न निचुड़ता हो और परेशान होता हो और कोई उसे बता दे कि 'पागल, रेत में तेल होता ही नहीं, इसलिए तू लाख उपाय कर, तेरे उपायों का सवाल नहीं है, तेल निकलेगा नहीं, तू लाख सिर तेरा सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत से तेल निकलेगा नहीं ।' मार. आकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों की जननी है । आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में खो गया, उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है उससे तेल निकल नहीं सकता । तेल वहां है नहीं । तीसरा अंग है निर्विचिकित्सा - जुगुप्सा का अभाव । अपने दोषों को तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा । प्रत्येक व्यक्ति उलझा है। जुगुप्सा में | हम अपने दोष छिपाते हैं और दूसरों के गुण छिपाते हैं । अगर तुमसे कोई कहे फलां आदमी देखा, कितनी प्यारी बांसुरी बजाता है, तुम फौरन कहते हो, वो क्या बांसुरी बजायेगा - चोर, लुच्चा, लम्पट । अब चोर, लुच्चा, लम्पट से बांसुरी बजाने का कोई भी सम्बन्ध नहीं है । कोई चोर है, इससे बांसुरी For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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