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जिनवाणी-विशेषाङ्क सम्यग्दर्शन योग्य भूमिका
(१) इन्द्रिय-विषय हमें फीके लगें (२) कषाय उपशान्त हों (३) महापुरुषों के बताये हुए मार्ग पर हम चलें (देव, गुरु व जिनवाणी पर श्रद्धा रखकर चलें) (४) कथनी व करनी एक हो (५) जीवन सादा, सरल व विचार उच्च हों (६) मैत्री-प्रमोद-करुणा व माध्यस्थ भाव हमारे अन्दर जगें (७) विनय, सरलता, कोमलता, विशालता के भाव जीवन में आयें। (८) सत्संग में अत्यन्त प्रीति हो (९) संसार खारा जहर लगे (१०) सद्गुरु के प्रति अत्यन्त अर्पणता के भाव जगें (११) तत्त्वों के यथार्थ निर्णय की क्षमता हो (१२) प्रामाणिक जीवन हो (१३) हमारी आजीविका न्याय-नीतिमय हो (१४) सप्त कुव्यसन के त्यागी बनें । (१५) हमारा बाह्य आचरण व बाह्य व्यवहार, खान-पान आदि सब शुद्ध हों । जब ये सारे गुण जीवन में खिलेंगे तभी सम्यग्दर्शन प्रकट हो सकता है।
सम्यग्दर्शन होने से बाह्य परिस्थिति या वातावरण नहीं बदलता, हमारी दृष्टि बदल जाती है। दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाती है। जिस संसार व जिन भोगों को जीवन का आनन्द मानकर उनमें रचे-पचे रहते थे, उन्हें अब क्षण-भंगर व नाक के मल के समान त्याज्य समझने लग जाते हैं। काजल की कोठरी या कीचड़ में पांव रखते समय व्यक्ति कितना सजग व सावधान रहता है कि कहीं उसके कालिख न लग जाये; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव संसार में स्नेहियों के बीच रहते हुए भी मन में उस कीचड़ से यानी मोहासक्ति से बचकर रहता है। रहने-रहने में बड़ा अन्तर है। ज्ञानी भी इसी संसार में रहता है व अज्ञानी भी इसी संसार में रहता है, परन्तु एक संसार में आसक्त बनकर रहता है व दूसरा मात्र कर्त्तव्य समझ कर जीता है। ऐसी आत्मा के समस्त मापदंड बदल जाते हैं। कहा है. चक्रवर्ती की संपदा, इन्द्र सरीखा भोग।
काग-बीट सम गिनत हैं सम्यग् दृष्टि लोग। व्यक्ति जिस भोग सामग्री को सर्वस्व समझता था, जिन स्त्री-पुत्रों व धन-सम्पत्ति को सर्वेसर्वा मानकर पाप, अत्याचार, अनीति व शोषण करता था, सम्यग्दर्शन के पश्चात् उसे ये सब तुच्छ नजर आते हैं।
बाह्य-पदार्थ के रहने पर भी सम्यग्दृष्टि के मन में उसकी आसक्ति नहीं रहती। हम संसार में रहें, कोई आपत्ति नहीं है पर संसार हमारे भीतर न हो। नाव जल में चलती रहे, कोई भय नहीं, पर नाव में जल नहीं आना चाहिये । शरीर हमें मिला है कोई आपत्ति नहीं, पर शरीर में ममता नहीं रहनी चाहिये । संसार के पदार्थों का ज्ञान होना बुरा नहीं है, पर वह ज्ञान राग-द्वेष के साथ न हो। राग व द्वेष के मिश्रण से ही ज्ञान मलिन व अपवित्र बनता है। सम्यग्दर्शन में एक ऐसी विलक्षण शक्ति है जिसके प्रभाव से अनन्त-अनन्त जन्मों के मिथ्यात्व के बंधन क्षण भर में विध्वस्त हो जाते हैं । सम्यग्दर्शन में वह शक्ति है जिसके प्रभाव से आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप का बोध कर लेता है। स्व-पर का विवेक ही सम्यग्दर्शन है। जब आत्मा अपने स्व-स्वरूप का बोध कर अपने स्वरूप में स्थिर बन जाता है तो समस्त विभाव-भावों एवं विकल्पों के जाल से मुक्त बन कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त एवं शाश्वत पद को प्राप्त कर लेता है । यही साधना का चरम लक्ष्य है। यही मुक्ति है । सम्यग्दर्शन के बिना यह संभव नहीं है ।
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