________________
सम्यग्दर्शन और जीवन-साधना
है श्रीमती रतन चोरडिया* सम्यग्दर्शन को साधना का मूल माना गया है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का जीवन-व्यवहार कैसा होता है, इसका श्रीमती चोरडिया के प्रस्तुत लेख में भलीभांति चित्रण हुआ है।-सम्पादक
इस जीव को जीव का बोध कैसे हो? इस आत्मा को आत्मा का ज्ञान कैसे हो? बहिरात्मा अन्तरात्मा कैसे बने? कैसे हमारी आत्मा, आत्म-भावों में प्रतिपल जाग्रत रहे? इसी के लिये सारी साधना है। रत्नत्रय के मार्ग में हम निरन्तर आगे बढ़ते रहें, यही साधना है। भव-बंधनों को काटकर अजर, अमर, शाश्वत-सुख को प्राप्त करना ही साधना का मूल लक्ष्य है। मानव से महामानव, नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान व चेतन से चिदानंद बनना ही साधना का चरम लक्ष्य है। साधना में आस्था, निष्ठा और श्रद्धा भाव होने पर ही जीवन में मौलिक परिवर्तन आ सकता है। जो ज्ञान भव-बंधनों को तोड़ कर हमारे जीवन को पवित्र व सुखी बनाये, ऐसे ज्ञान को हम अर्जित करते जायें। चिंतन करें कि मेरे जीवन की दौड़-धूप किस मार्ग पर हो रही है। मैं अपने लक्ष्य पर पहुंचने के लिये कितना व कैसे प्रयत्न कर रहा हूं। जो-जो बुराइयां मेरे जीवन रूपी अमृत को विकृत कर रही हैं उनसे मैं कैसे बच सकता हूँ।
भूल हमारी समझ की है। हम समझते हैं कि संसार-व्यवहार में हम चाहे जो कर लें; हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, दंभ, व्यभिचार आदि कार्यों को करते रहें और फिर थोड़ा साधर्मिक कार्य करें तो हमारे सारे पाप नष्ट हो जायेंगे, या हम तो संतों के यहां जाते हैं, धार्मिक हैं, मुक्ति तो हमारे हाथ में है।
वस्तुत: धर्म कभी जीवन से अलग हो नहीं सकता। यदि जीवन अलग है व धर्म अलग है तो तीन काल में भी हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । जीवन के कण-कण में धर्म की सुगन्ध फूटनी चाहिये। ___ संसार का प्रत्येक कार्य विवेकपूर्ण हो । पाप कार्य में हमारा आकर्षण व आसक्ति न हो, बल्कि खेद हो कि संसार में रहकर मुझे ये सब कार्य करने पड़ते हैं। मैं उन सब कार्यों को करते हए भी अन्दर से जाग्रत रहँ. आत्म भावों में रहँ, पाप कार्यों से जितना-जितना बच सकता हूँ, बचूँ। जो-जो कार्य मेरी आत्मा के लिये विषम वातावरण पैदा कर उसे मलिन बनाते हैं ऐसे कार्यों से जितना हो सके बचूँ । इस तरह जिसके जीवन में विवेक की ज्योति जग जाती है उसके जीवन का नक्शा ही बदल जाता है। उसका रहन-सहन, खान-पान, चाल-ढाल उसकी गतिविधि, सब कुछ बदल जाता है। विवेक की ज्योति जिसके हृदय में प्रज्वलित हो जाती है वह भटक नहीं सकता। ठोकर खा नहीं सकता, कर्मबंध उसके तीव्र हो नहीं सकते। अतः जीवन के हर क्षेत्र में विवेक का प्रकाश आवश्यक है। . ___ यह संसार बड़ा विचित्र है। हर व्यक्ति जानता है कि मुझे सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है । मेरा सब कुछ संग्रह किया हुआ छूटने वाला है। धन यहीं रहेगा, तिजोरी यहीं * प्रमुख स्वाध्यायी एवं समाजसेविका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org