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________________ २९२ जिनवाणी-विशेषाङ्क करे तो भी खुश हैं। निन्दा व निन्दाकर्ता के प्रति किसी भी राग-द्वेष की जरूरत नहीं। जो कर रहा है वह अनजाने में व अज्ञानवश कर रहा है, ऐसी भावना उसके प्रति रहे तो उसके प्रति द्वेष की बजाय करुणा के भाव जगेंगे और यही हमारे व उसके कल्याण का मार्ग होगा। एक-दूसरे के प्रति व्यवहार व बातचीत में पूर्वाग्रह की बजाय सम्यक् रूप से समझने की कोशिश करें कि सामने वाले ने जो बात कही है, वह किस अपेक्षा से कही है। हो सकता है उसने अपने दृष्टिकोण से कही हो और उसको वस्तु के अन्य पहलू का ज्ञान न हो। हो सकता है कि उसका मन स्वस्थ न हो । यदि अस्वस्थ मन अर्थात् क्रोध, लोभं आदि की भावना से ग्रसित हो, तो उस मन द्वारा कही बात अस्वस्थं व्यक्ति की बात मानकर उसका बुरा न मानें तो हमें भी दुःख न होगा और चूंकि हमने प्रतिक्रिया की ही नहीं, तो उस व्यक्ति को भी पुनः प्रतिक्रिया करने का मौका नहीं मिलेगा। ___ भगवान् महावीर के पास जब गोशालक आने वाला था और भगवान् को मालूम था कि उसके पास तेजोलेश्या है और उसका प्रयोग कर सकता है तो अपने सभी साधुओं को वर्जित किया कि गोशालक के आने पर व उसके बोलने पर कोई भी प्रतिक्रिया न करे और शांत भाव से बैठे रहें। गोशालक आया और काफी कटु शब्द कहे व तेजोलेश्या का प्रहार भी किया, परन्तु भगवान शान्त थे। तेजोलेश्या लौटकर गोशालक को ही प्रभावित करने लगी । जब तेजोलेश्या जैसे प्रहार भी हमारे शान्त भाव और क्षमा से निरस्त हो जाते हैं तो जीवन में मामूली क्रोध आदि के वशीभूत होने वाले गाली, निन्दा आदि के प्रहार हमें दुःखी नहीं कर सकते । ये भी अस्वस्थ मन के प्रहार हैं और अनित्य में शामिल हो जायेंगे। ___जीवन का दर्शन सम्यक् हो गया तो जीवन सुखी हो जायेगा। सम्यक् दर्शन मोक्ष का आधार तो है ही, लेकिन आज और अभी जो जीवन है उसको कैसे अच्छी तरह व सुख से जीयें इसका मूलमंत्र है। जिसे यह दर्शन मिल गया, वह सफल जीवन जी जायेगा। जो इसके विपरीत जाकर वस्तु व प्रतिक्रिया के जीवन में रहेगा, निश्चित ही दुःखी जीवन जीयेगा। भगवान बुद्ध ने कहा, चार आर्य सत्य हैं (१) दुःख है, (२) दुःख का कारण है, (३) दुःख का निवारण है और (४) दुःख निवारण का उपाय है। ये चार आर्य सत्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ऊपर से देखने में बड़ा अजीब लगता है कि ऐसी छोटी छोटी बातों को आर्य सत्य कहा है, परन्तु महराई से देखें तो बड़ी बात लगती है। हम दुःख मानते हैं और भोगते हैं, परन्तु दुःख को जानते नहीं। दुःख क्या है, इसे नहीं जानते, इसलिए दुःख का कारण नहीं जानते और दुःख का कारण नहीं जानते तो निवारण और उसका उपाय भी नहीं जानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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