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________________ २७९ सम्यग्दर्शन :जीवन-व्यवहार आदि से शारीरिक एवं मानसिक बेहोशी आती है, ठीक उसी प्रकार मोह का नशा भी आत्मा को बेभान कर देता है। जिसके फलस्वरूप आत्मा इस धोखे में सुख में छिपे हुए दुःख एवं अशांति के रहस्य को समझ नहीं पाता। दूसरा सुख जो वास्तविक एवं सच्चा है तथा वेदनीय कर्म के क्षय से प्राप्त होता है। यह सुख प्रकट होने के बाद वापस नहीं जाता। यह सुख आध्यात्मिक होने से अव्याबाध एवं अनन्त होता है और आत्मा का ही गुण होने के कारण सत्ता रूप से रहा हुआ सभी प्राणियों में पाया जाता है। इस सुख की प्राप्ति के लिये भी पहले मोह कर्म और उसके फल राग, द्वेष एवं चारों कषायों का क्षय करना आवश्यक होता है। सुख एवं शांति में अन्तर मोह एवं अज्ञान के फलस्वरूप अधिकांश प्राणी सुख में शांति रहती है और दुःख में अशांति रहती है, यही जानते और मानते हैं। इसीलिये शांति की आशा से सुख के साधन बढ़ाते ही जाते हैं। जिस प्रकार भिखारी को दस हजार में, दस हजार वाले को पांच लाख में, पांच लाख वाले को पचास लाख में और पचास लाख वाले को करोड़ों में सुख दिखाई देता है पर करोड़ों मिल जाने पर भी जब सच्चे रूप में सुखी नहीं होता तब उसे लगता है कि वास्तविकता या सच्चाई इसमें भी नहीं है। जिस प्रकार धन के बढ़ने पर तृष्णा उससे आगे से आगे बढ़ती ही जाती है इसी प्रकार भौतिक सुखों के बढ़ने पर भी शांति के स्थान पर अशांति ही बढ़ती जाती है। उदाहरण के रूप में जैसे किसी के पास पांच लाख रूपये थे तब उसके एक दुकान थी और बढ़ते-बढ़ते बीस लाख होने पर चार दुकानें कर ली। वह दुकानें एक की चार होने का सुख तो महसूस करता है पर तनाव रूप अशांति भी साथ में बढ़ती ही है। राग में दुःख भी सुख लगता है अशांति तो बहुत सूक्ष्म और छुपी हुई होती है । इस कारण इसका पता चलना कठिन होता है, परन्तु राग में बड़ा दुःख भी महसूस नहीं होता। जिस प्रकार एक पांच वर्ष की बच्ची अपने एक वर्ष के भाई को गोद में लेकर चले और कोई व्यक्ति उससे कहे कि इतना भार मत उठा तो वह कहती है कि यह भार नहीं है, मेरा भाई है। परन्तु यदि उसके भाई के वजन से आधे वजन का पत्थर उसे उठाने को कहे तो वह कहेगी कि यह तो बहुत भारी है इतना वजन मेरे से नहीं उठ सकता। भाई के भार का दुःख प्रत्यक्ष होते हुए भी ममत्व के कारण महसूस नहीं होता। इसी प्रकार चांदी, सोना आदि की भी वजन के साथ कीमत बढ़ती है, पर अधिक कीमती होने के अभिमानजन्य सुख के कारण वजन का दुःख महसूस नहीं होता। विवाह शादियों में लाखों-करोड़ों का खर्च व्यक्ति अहं के लिये खुशी-खुशी कर देता है, पर किसी दुःखी भाई के लिए सौ-पचास का त्याग भी उसे कठिन लगता है। अहं एवं राग मीठे जहर क्रोध एवं द्वेष प्रतिकूलता से होते हैं इसलिये दुःख रूप लगते हैं। इनको ज्ञानियों ने अफीम के समान काले एवं खारे जहर के समान कहा, परन्तु राग एवं अहं अत्यन्त मीठे, लुभावने एवं सुहावने लगते हैं इसलिये इनको मीठा जहर कहा गया । जैसे किंपाक फल या बादाम का हलुआ जिसका रंग, रूप, स्वाद सुगंध आदि सब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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