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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २६५ निष्णात, प्रौढ़ और तपे हुए साधक दुर्जनों, पथभ्रष्टों और मिथ्यादृष्टियों को भी सन्मार्ग पर ला सकते हैं। केशीस्वामी के सम्पर्क में आने से ही राजा प्रदेशी सन्मार्ग पर आया था। यदि केशीस्वामी प्रदेशी राजा से दूर ही रहे होते तो उसकी आत्मा का उद्धार होना कठिन ही था। अतएव ऐसे समर्थ साधक अपवाद हैं। सामान्य साधक के लिए तो मिथ्यादृष्टि के घनिष्ठ सम्पर्क में आकर स्वयं ही भ्रष्ट हो जाने की संभावना रहती है। यही इन अतिचारों के विधान का हेत् है । गलिश्तां में शेख सादी साहब इसी तथ्य को इन शब्दों में पेश करते है-'फरिश्ता (देवदूत) शैतान के साथ रहने लगे तो वह भी कुछ दिनों में शैतान बन जाएगा।' महाभारत में व्यासजी कहते हैं यादृशैः सन्निविशते, यादृशांश्चोपसेवते । . यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पुरुषः ॥ मनुष्य जैसे मनुष्यों की संगति में रहता है, जैसों की सेवा करता है तथा जैसा बनना चाहता है, वैसा ही बन जाता है। वस्तुतः संसर्ग से गुण उत्पन्न भी होते हैं और नष्ट भी होते हैं। अतएव मनुष्य के लिए आवश्यक है कि उसने अपना जो लक्ष्य निर्धारित किया है और उसकी प्राप्ति के लिए जो साधन चुने हैं, उनके प्रति एकनिष्ठ बने रहने के लिए वह ऐसे लोगों की प्रशंसा एवं परिचय से बचता रहे, जिनके सम्पर्क से उसके चित्त में दुविधा उत्पन्न हो, विक्षेप हो, अनास्था हो, चंचलता हो। ___ इस कथन का आशय यह नहीं है कि जो साधक परिपक्व हो चुके हैं, वे असन्मार्गगामी जनसमूह को सन्मार्ग पर लाने के लिए भी उनके सम्पर्क में न आवें । यह बात ऊपर कही जा चुकी है। साधना की प्राथमिक स्थिति में चलने वाले साधकों को खासतौर पर इन अतिचारों से बचना चाहिए। अतिचारों के विषय में उपासकदशांग में इस प्रकार पाठ मिलता है-'पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा' अर्थात् पांच अतिचार ज्ञातव्य तो हैं, परन्तु आचरणीय नहीं हैं। प्रश्न उठाया जा सकता है कि जिसका आचरण ही नहीं करना है, उसे जानने से क्या लाभ है ? परन्तु हेय पदार्थ भी ज्ञेय होता है। जिसे हम जानेंगे नहीं, उसके दुष्परिणाम से अपरिचित रहेंगे और उसके त्याग की आवश्यकता भी अनुभव नहीं कर सकेंगे। कदाचित् अनजाने, देखादेखी या किसी के कहने मात्र से, त्याग कर भी दिया तो उस त्याग में संकल्प का बल नहीं होगा। ऐसा त्याग निष्प्राण होगा। अतएव त्याज्य वस्तु के दोषों को भी उसी प्रकार समझना चाहिए, जिस प्रकार ग्राह्य वस्तु के गुणों को समझना आवश्यक है। इसी दृष्टिकोण से अतिचार भी 'जाणियव्वा' हैं। जो सम्यग्दृष्टि अतिचारों को भलीभांति समझता है, वह सरलता से उनसे बच सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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