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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २५७ शिष्य के रूप में छाया की तरह भगवान् के पीछे-पीछे भी चलता रहा। परन्तु इतने दीर्घकाल में भी वह अपनी दृष्टि नहीं बदल सका। गोशालक पर बाल तपस्वी ने तेजोलेश्या छोड़ी, और भगवान् ने उसकी रक्षा के लिए शीतल लेश्या का प्रयोग किया। इस समय दोनों ही लेश्याओं की शक्ति उसके सामने थी फिर भी उसके मन में यह भाव नहीं जगा कि मैं भगवान से शीतल लेश्या का प्रयोग सीख लूं, ताकि यथावसर तेजोलेश्या से जलते जीवों को शीतलता प्रदान कर सकू। इसके विपरीत वह तेजोलेश्या सीखने के संकल्प में ही उलझा रहा। और कोई बात नहीं, गोशालक की दृष्टि बदली नहीं थी। उसके मन में यही भावना, उद्बुद्ध होती रही कि यदि कोई मेरा अपमान करेगा, तो तुरन्त ही उसे तेजोलेश्या से जलाकर भस्म कर दूंगा। परन्तु वह कभी दुनिया को शीतलता प्रदान करने का शुभ संकल्प नहीं कर सका। वास्तव में यह है - मिथ्यात्व। यह है - दृष्टि न बदलने की स्थिति । यह वह दुःस्थिति है, जिसको अपनी अन्तरात्मा ही बदल सकती है। महापुरुष और गुरुदेव तो निमित्तमात्र हैं, परन्तु परिवर्तन की पूर्ण प्रभु सत्ता उनके पास नहीं है। वह पवित्र प्रेरणा है - अन्तर्मन में, और अन्तरात्मा के अन्तःस्थल में। आज भी हजारों-लाखों मनुष्य ऐसे मिलेंगे, जो भगवान् के नाम की माला जपते हैं और स्तोत्र-पाठ एवं पूजा-भक्ति करते हैं। यह सब किसलिए? इसलिए कि - उनसे धन-दौलत, पुत्र-पौत्र, भोग-विलास के साधन एवं शारीरिक सुख प्राप्त कर सकें तथा अपने शत्रु को पराजित कर सकें। जब तक जीवन में यह दृष्टि विद्यमान है, तब तक महापुरुष भी मिले, श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा भी की, और त्याग-तप की उत्कृष्ट भूमिका पर भी पहुँचे, फिर भी उससे क्या लाभ? वीतराग के पास पहुँच कर भी यदि कोई स्वार्थ एवं भोग के झूठे टुकड़े माँगता है, तो स्पष्ट है कि - "उसने वीतराग का वास्तविक स्वरूप समझा ही नहीं है।" __आप जानते हैं, तीर्थङ्कर का स्वरूप क्या है ? देवों के द्वारा बनाए समवसरण में स्फटिक के सिंहासन पर बैठकर उपदेश दे रहे हैं, क्या यह तीर्थङ्कर का स्वरूप है? क्या देवेन्द्रों द्वारा छत्र-चामर होना, अथवा देव निर्मित स्वर्ण कमलों पर चलना, यह तीर्थङ्कर का स्वरूप है ? क्योंकि देवता समवसरण में गन्धोदक की वृष्टि करते हैं, क्या इसलिए हम उन्हें तीर्थकर मानकर पूजा करें? क्या समचतुरस्र संस्थान, और वज्रऋषभ नाराच संहनन, आदि को तीर्थङ्कर का स्वरूप माने? नहीं। परम वीतराग तीर्थङ्कर का स्वरूप इतना ही नहीं है, यह तो केवल बाह्य विभूति है। इसमें ही तीर्थङ्करत्व बंद नहीं है। वास्तविक तीर्थङ्करत्व को रक्त और अस्थि के ढांचे से नहीं तोला जा सकता। तीर्थङ्करत्व न तो बाहरी वैभव में है, और न शरीर में ही है। वह तो आत्मा की विशुद्ध स्थिति में समाधिस्थ है । वह विशुद्ध आत्म-परिणति ही तीर्थङ्करत्व है, जो अनन्त ज्ञान की दिव्य ज्योति है, जिसने अज्ञान अन्धकार के कण-कण को नष्ट कर दिया है और राग-द्वेष के बीज को समूलतः नष्ट कर दिया है। अस्तु, भावार्थ यह है कि-तीर्थङ्करत्व जिन रूप में है, 'अर्हन्त' रूप में हैं, 'निष्काम एवं वीतराग' भाव में है। यह बात मैं ही नहीं कह रहा हूं, श्रावक बनारसीदास ने भी यही कहा है “तीर्थङ्कर के शरीर का वर्णन, जिनेश्वर देव का वर्णन नहीं है। उनकी आत्मा में, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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