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________________ २२४ जिनवाणी-विशेषाङ्क भी समृद्ध एवं शक्तिशाली बने हुए हैं। फिर हम क्यों इन व्यर्थ के क्रिया-काण्डों में उलझकर अपनी मूढ़ता एवं अज्ञानता का प्रदर्शन करें। इसी प्रकार मरणोत्तर क्रिया में मृतक को धूपादि देना जैसी अनेक अज्ञानपूर्ण क्रियाएं प्रचलित हैं, जिनसे न तो कोई भौतिक लाभ होता है और न आत्मिक लाभ ही होता है । उल्टा मिथ्यात्व का पोषण होता है और आत्मा कर्म-बन्धनों में जकड़ता है। अज्ञान भी मिथ्यात्व रूप होता है, क्योंकि विपरीत ज्ञान जहां होता है वहां मिथ्यात्व का निवास होता है। कभी ऐसा भी हो जाता है कि ज्ञानावरणीय के उदय से सम्यग्दृष्टि को भी किसी एक विषय में गलत धारणा हो जाती है। किन्तु जिनेश्वरों के वचनों पर उसका विश्वास दृढ़ होता है, उसका गलत धारणा में हठाग्रह नहीं होता और सद्गुरु का योग मिलने पर उनके समझाने पर, वह अपनी भ्रम धारणा को छोड़कर सत्य को अपना लेता है। इस प्रकार की भूल भूलैया के कारण जिनेश्वरों पर श्रद्धा रखते हुए किसी एक विषय में गलत धारणा होने पर वह मिथ्यादृष्टि नहीं माना जाता है। ___परन्तु यदि वह समझाने पर भी नहीं माने और आगम-प्रमाण उपस्थित होने पर भी अपना हठ नहीं छोड़े, खोटे पक्ष को ही पकड़े रहे तो उसकी गणना आभिग्रहिक मिथ्यात्व में आती है। यह मिथ्यात्व अभव्य को होता है। २. अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व सभी मतों और पंथों को सत्य मानना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है। ठाणांग सूत्र २.१ में स्पष्ट वर्णित है कि 'अपने लिए तो सभी एक समान हैं' इस प्रकार सत्यासत्य, गुणावगुण और धर्म-अधर्म का विवेक नहीं रखकर 'सर्वधर्मों को समान मानने रूप मूढ़ता को अपनाना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है। गुण-दोष की परीक्षा नहीं करते हुए सभी पक्षों को समान रूप से मानने वाले मन्दबुद्धि जीव होते हैं जो परीक्षा करने में असमर्थ होते हैं और साथ ही वे किसी भी मार्ग में स्थिर नहीं रह सकते हैं। ऐसे जीव अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व की श्रेणी में आते परीक्षा करके स्वीकार करने की बुद्धि न तो आभिग्रहिक मिथ्यात्वी में होती है और न ही अनाभिग्रहिक मिथ्यावी में। इस दृष्टि से दोनों में समानता होते हुए भी दोनों में एक खास भेद रहा हुआ है । आभिग्रहिक मिथ्यात्वी किसी एक मिथ्यापक्ष का समर्थक बन कर अन्य का खण्डन करता है, पर दूसरा अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वी किसी का विरोध नहीं करके सबको समान रूप से मानकर 'सभी धर्म समान हैं' का सिद्धान्त अपना लेता है। जैसे कई लोग कहा करते हैं कि 'हमें किसी साधक के गुण-दोष देखने की क्या आवश्यकता है? हमें तो साधु वेश देखकर ही उनका आदर-सत्कार और वन्दन करना चाहिए। जिस प्रकार रुपये की छाप होने पर ही कागज का नोट चलता है उसी प्रकार वेश होने पर ही साधु की पूजा होती है। नोट के चलन में कागज की ओर नहीं देखा जाता, उसी प्रकार साधु के या धर्म के गुण-दोष देखने की जरूरत नहीं है, इस Jain Education International For Personal & Private Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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