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________________ सम्यग्दर्शन और दर्शनसप्तक ५ धर्मचन्द जैन इस संसार में जीव अनादि काल से जन्म-मरण करता आ रहा है, इसका मूल कारण स्वयं का, स्वयं के प्रति रहा हुआ अज्ञान एवं मिथ्यात्व है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने के लिये सम्यक्त्व अमोघ उपाय है, क्योंकि मिथ्यात्व संसार-चक्र में फंसाये रखता है जबकि सम्यक्त्व मोक्ष के परम सुखों को दिलाने वाला है। मिथ्यात्व मारक है, सम्यक्त्व रक्षक है, इसलिये सम्यक्त्व की प्राप्ति, संरक्षण एवं दृढ़ीकरण के लिये समुचित विचार एवं प्रयत्न करना अत्यावश्यक है। इस आत्मा ने अनादिकाल से कर्म की शिक्षा ली, किन्तु अब उसे अपने स्वभाव रूप धर्म की शिक्षा लेनी है, क्योंकि धर्म की शिक्षा संसार की जड़ें काटकर अजर-अमर पद दिलाने वाली है। जिस ज्ञान से संसारवर्धक एवं पापवर्धक वृत्तियां हेय और मोक्षदायक वृत्तियां उपादेय मान्य हों, वह सम्यग्ज्ञान है । उस ज्ञान पर पूर्ण विश्वास होना सम्यग्दर्शन है । स्व-पर का ज्ञान, स्व-पर संयोग का कारण और उसका शुभाशुभ परिणाम जानना, मुक्तदशा और उसके उपायों को जानकर पूर्ण विश्वास होना भी सम्यग्दर्शन कहलाता है। जीवादि तत्त्वों का जो स्वरूप एवं भाव जिनेश्वर देव ने प्ररूपित किया है, उसे सत्य मानकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व का परिचायक है- “तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ।” सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के उपाय बतलाते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में कहा हैतन्निसर्गादधिगमाद्वा - १/३ अर्थात् वह सम्यग्दर्शन निसर्ग (स्वभाव) से अथवा अधिगम (उपदेशादि) से प्राप्त होता है। सम्यग्दृष्टि का मूल कारण तो जीव की अपनी सम्यग् परिणति है। जिसमें भव्य होना, शुक्लपक्षी होना, महा-मोहनीय कर्म की ७० कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति में से ६९ कोटाकोटि सागरोपम से कुछ विशेष स्थिति को क्षय करके मिथ्यात्व की गांठ को तोड़ देना सम्मिलित है। निसर्ग और अधिगम दोनों प्रकार के सम्यग् दर्शन में आन्तरिक कारण अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मिथ्यात्व-मोहनीय, मिश्र मोहनीय व सम्यक्त्व मोहनीय इन सात प्रकृतियों का क्षय-उपशम और क्षयोपशम होना ___यों तो अभव्य जीव भी अकाम निर्जरा द्वारा यथाप्रवृत्तिकरण (सम्यग्दृष्टि जैसी प्रवृत्ति) तक आ जाता है, किन्तु वह मिथ्यात्व की गांठ को तोड़ नहीं पाता। सम्यक्त्व के बाधक कारणों में दर्शन मोहनीय कर्म का उदय आन्तरिक कारण है और बाह्य कारण मिथ्यादृष्टियों और उनके साहित्य आदि का परिचय आदि है। ऐसे बाधक कारण वर्तमान में अधिक हो रहे हैं। अतः इनसे बचने में सदैव जागरूक रहना चाहिये ताकि सम्यक्त्व सुरक्षित रह सके। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वार्थ सूत्र, १/२ * वरिष्ठ स्वाध्यायी एवं धर्माध्यापक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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