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ज्ञान पहले या दर्शन
साध्वी विश्रुतविभा उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग कहा है। उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग बताया है। उन्होंने तपस्या का स्वतंत्र निर्देश नहीं किया है, तप को चारित्र के अन्तर्गत ही स्वीकार किया है ।
बौद्ध साहित्य में आष्टांगिक मार्ग को मोक्ष का कारण माना गया है, जिसमें पहला मार्ग है- सम्यग्दृष्टि। कुछ दार्शनिक केवल ज्ञानमार्ग को मुक्ति का साधन मानते हैं, कुछ दार्शनिक भक्तिमार्ग को मोक्ष का कारण स्वीकार करते हैं, कुछ कर्म को मुक्ति का हेतु मानते हैं । किन्तु जैन दर्शन के अनुसार मात्र दर्शन, मात्र ज्ञान अथवा मात्र चारित्र से मुक्ति संभव नहीं है। इन तीनों का समन्वय होने से ही व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त कर सकता है ।
णाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥
जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है ।
प्रश्न उपस्थित होता है कि पहले ज्ञान है या दर्शन । उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तप, यह क्रम मिलता है । तत्त्वार्थ सूत्र में पहले दर्शन और फिर ज्ञान, यह क्रम प्राप्त है । उत्तराध्ययन सूत्र के इसी अध्ययन में बताया गया है
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्यि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होता, अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती । अमुक्त का निर्वाण नहीं होता ।
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यह उल्लेख सापेक्ष है, सम्यग्दर्शन होते ही अज्ञान ज्ञान में परिणत हो जाता है इस अपेक्षा से पहले दर्शन और फिर ज्ञान, यह क्रम संगत प्रतीत होता है। जहां केवल मोक्ष के साधनों का उल्लेख है, वहां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप यह क्रम भी उचित है ! दर्शन और ज्ञान का सम्यक्त्व युगपत् होता है। ज्ञान का कारण ज्ञानावरण का विलय और दर्शन तथा चारित्र का कारण दर्शनमोह और चारित्र मोह का विलय है ।
साधना की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का स्थान पहला है, सम्यग्ज्ञान का दूसरा और सम्यक्चारित्र का तीसरा स्थान है। जब ये तीनों पूर्ण होते हैं तब साध्य सध जाता है, आत्मा कर्ममुक्त हो परमात्मा बन जाता है ।
ज्ञान का कार्य है यथार्थता को जानना, किन्तु जब तक जीव मोह कर्म के साथ जुड़ा हुआ है तब तक सच्चाई को जान नहीं सकता। वह आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म आदि के सम्बन्ध में पढ़ या सुन भी लेता है, किन्तु जब तक दर्शनमोह के परमाणुओं का विलय नहीं होता तब तक उसका दृष्टिकोण सम्यक् नहीं बनता, वह यह सोचता है
न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खुदिठ्ठा इमारई ॥ हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया ।
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